माँ पर नहीं लिख सकता कविता | चंद्रकांत देवताले
माँ पर नहीं लिख सकता कविता | चंद्रकांत देवताले

माँ पर नहीं लिख सकता कविता | चंद्रकांत देवताले

माँ पर नहीं लिख सकता कविता | चंद्रकांत देवताले

माँ के लिए संभव नहीं होगी मुझसे कविता
अमर चिउँटियों का एक दस्ता
मेरे मस्तिष्क में रेंगता रहता है
माँ वहाँ हर रोज चुटकी-दो-चुटकी आटा डाल देती है

मैं जब भी सोचना शुरू करता हूँ
यह किस तरह होता होगा
घट्टी पीसने की आवाज
मुझे घेरने लगती है
और मैं बैठे-बैठे दूसरी दुनिया में ऊँघने लगता हूँ

READ  लीला | मणि मोहन

जब कोई भी माँ छिलके उतार कर
चने, मूँगफली या मटर के दाने
नन्हीं हथेलियों पर रख देती है
तब मेरे हाथ अपनी जगह पर
थरथराने लगते हैं

माँ ने हर चीज के छिलके उतारे मेरे लिए
देह, आत्मा, आग और पानी तक के छिलके उतारे
और मुझे कभी भूखा नहीं सोने दिया

READ  प्यार भरी मनुहार भरी | अलका विजय

मैंने धरती पर कविता लिखी है
चंद्रमा को गिटार में बदला है
समुद्र को शेर की तरह आकाश के पिंजरे में खड़ा कर दिया
सूरज पर कभी भी कविता लिख दूँगा
माँ पर नहीं लिख सकता कविता !

Leave a comment

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *