कई महीनों बाद गाँव गया हूँ। वहाँ माँ अकेली रहती है। आज घर का दरवाजा खुला है। वरना ऐन तड़के दरवाजा ओट कर बाहर का काम निपटाने चली जाती है। सुबह का सारा वक्त गोशाला में बीतता है। पशुओं को घास-पत्ती देते। गाय दुहते। गोबर फेंकते।

इस समय भी माँ भीतर नहीं है। मैं उनके कमरे में चला आया हूँ। सूरज निकलते ही पहली किरण उनके कमरे में पड़ती है। आज किरणों के साथ मैं हूँ। उनका कमरा जितना अपना लगता है उतना ही अकेला है पर तरह-तरह की चीजों से भरा हुआ। उसी तरह जैसे उजास भीतर भर जाया करता है। ऊपर लकड़ी की छत में जगह-जगह मकड़ी के जाले हैं। नीचे की तरफ झूलते। उनमें कई मक्खियाँ मरी-फँसी है। यही हाल दीवारों का भी है। कई जगह जालों पर कीरा जम गया है।

जगह-जगह सामान बिखरा पड़ा है। कोई चीज तरतीब से नहीं है। दरवाजे से भीतर आते दाईं ओर दूध बिलाने का घड़ा रखा है। उस पर मैला सा कपड़ा है। माँ जब चूल्हे के पास दूध बिला के फारिग होती होगी तो इसे यहाँ ले आती है। बाईं तरफ एक टोकरा है। उसमें भेड़ की अनकाती ऊन भरी है। उसकी तहों के ऊपर कुछ थींगे हुए ऊन के फाहे हैं। एक किनारे तकली रखी है। एक कोने में खजूर की पत्तियाँ बिखरी पड़ी हैं। उनके बीच कई बुनी हुई खजूर की पट्टियाँ हैं, दूसरे कोने में छोटा सी पुरानी मेज। उस पर टेलीविजन रखा है। सिरहाने बिल्कुल साथ कनस्तर पर मैला सा कपड़ा है। उस पर टेलीफोन है। बिजली के बल्ब पर धूल ने पूरी तरह अधिकार जमा लिया है। उसका रंग बदरंग हो गया है।

माँ के सिरहाने ऊपर की ओर भीत पर एक कील में लकड़ी का चकौटा टँगा है। उस पर ढिबरी रखी है। छत के धुएँ ने एक लंबी लकीर बना दी है। जब बिजली चली जाती होगी तो माँ इसे जला लिया करती है। कमरे में बीड़ी की बास पसरी है। चारपाई के नीचे देखता हूँ तो वहाँ भी कई-कुछ चीजें बिखरी हैं। अधबुझी बीड़ी के टुकड़े। दियासलाई की जली तिल्लियाँ। एक खजूर के पटड़े पर सूखा अनारदाना। कुछ आँवले। आठ-दस अखरोट। पाँच अनछीली हुई पकी हुई मक्कियाँ। एक दूसरे में बँधी हुई। पहली फसल की मक्कियाँ देवता के लिए रखी होंगी। दो चार गठरियाँ जिनमें कई किस्म की दालें हैं। इतनी चीजें माँ के साथ रहती हैं। उनसे जुड़ी हैं। उनकी साथी-संगी हैं। लेकिन मैं इनके बीच उस कमरे में अकेला पखला बैठा हूँ। वे जैसे मुझे पहचानने का प्रयास कर रही हैं। कभी लगता है कि वे सभी मेरा उपहास उड़ा रही हैं। माँ घर आँगन द्वार खेत खलिहान जमीन जायदाद सब मेरे हैं, पर आज मैं इनसे कितना दूर चला गया हूँ।

सूरज घर की छत के कोने से आगे सरक गया है। किरणें सिमटती हुई आँगन में चली गई हैं। कमरे के उजाले को अपने साथ लेती हुई सुबह की बेला में अंधकार का एहसास होने लगा है। यह अँधेरा बाहर से कहीं ज्यादा मेरे भीतर पसरा है। हालाँकि मैं माँ के कमरे में हूँ। उनके बिस्तर पर बैठा स्नेह की गंध में भीग गया हूँ, लेकिन बरसों घर के बाहर रहने का अहसास उस स्नेह को मन तक नहीं पहुँचने देता।

याद ही नहीं रहा कि मेरे हाथों में किताबों का एक पैकेट भी है। इन नई पुस्तकों को मैं माँ को भेंट करने लाया हूँ। आज तक एक भी पुस्तक छपने के बाद उन्हें नहीं दे पाया। न ही उन्हें कभी पुस्तक विमोचन समारोहों में ही बुला पाया। जब भी कोई किताब आई है मैं ने उसे राज्यपाल या मुख्यमंत्री से ही रिलीज करवाया है। यह जानते हुए भी कि उन लोगों का साहित्य से कुछ लेना-देना नहीं है। बिल्कुल उसी तरह जैसे मंचों से गरीबी हटाने के नारे लगानेवालों का गरीबों से कोई लेना-देना नहीं होता। कागजों पर गाँव और उसके परिवेश की सोंधी खुशबू बिखेरनेवाले हम लेखकों का जैसे वहाँ की गोबर-मिट्टी से कोई वास्ता नहीं होता। यानि पल भर का छलावा। झूठी शान या यूँ कह लें कि घर फूँक तमाशा देखने भर की बात।

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ऐसा भी नहीं था कि माँ को बुलाना नहीं चाहता था। या कि उनकी यादें उस समय मेरे साथ न होती थीं। लेकिन कई डर मन में घर किए रहते। सोचा करता कि आज का माहौल बिल्कुल अलग तरह का है। माँ कैसे इन बड़े लोगों के बीच अपने का एडजस्ट कर पाएगी।

सबसे पहले तो उसका बस में बैठना ही किसी मुसीबत से कम नहीं। बैठते ही उनकी तबीयत खराब हो जाएगी। उल्टियाँ करने लगेंगी। थोड़ा आराम मिलेगा तो जेब से बीड़ी और माचिस निकाल लेंगी और शॉल की ओट में झटपट सुलगा कर पीने लग जाएँगी। एक-दो दम लेते ही खाँसी ऐसे शुरू होगी कि अभी प्राण निकल लिए।

जैसे-कैसे समारोह में पहुँचेगी तो लोगों की नजरें उन पर बराबर लगी रहेंगी। बिना प्रेस किए कपड़े, प्लास्टिक के जूते उपहास बनने लगेंगे। फिर उनके मुँह से बीड़ी की बास आती रहेगी। उनके बाल भी ठीक तरह से नहीं होंगे। हालाँकि शॉल सिर पर ओढे रखेंगी पर काले-सफेद बालों की आपस में बँटी लड़ियाँ नीचे तक लटकी होंगी। उनके बीच घास के तिनके और सूखी पत्तियाँ फँसी होंगी। जैसे ही लोगों को मालूम होगा कि मेरी मदर आई हैं तो वे बार-बार उनके पास बधाई देने जाएँगे। बातें करना चाहेंगे। कई कुछ पूछने लगेंगे। लेखक-पत्रकार बंधु तो बातें कुरेदेंगे। फिर पता नहीं माँ किस तरह बात करेंगी। पता नहीं क्या उल्टा-सीधा बोल देंगी। बातें करते-करते उन्हें खाँसी आ गई तो किरकिरी हो जाएगी। फिर उन्हें कहीं बीड़ी की तलब हो आई तो झट से सुलगा कर वहीं पीना शुरू कर देंगी। उसके बाद जलपान शुरू होगा तो वह छुरी काँटे से तो खा नहीं सकेगी। खाते हुए सभी का ध्यान उसके हाथों पर अवश्य जाएगा। गाँव में घास पत्ती काटते, गोबर फेंकते, दूध बिलाते, लकड़ियाँ काटते, चूल्हे में रोटी सेंकते, हाथ बिवाइयों से भरे होंगे उनसे गोबर-मिट्टी की बास भी आएगी भले ही लोग मुँह पर कुछ नहीं बोलें पर बातें तो बनाएँगे ही कि इतने बड़े लेखक की माँ ऐसी है। निपट गँवार। यह सब कुछ सहन भी कर लूँगा फिर बच्चों की खरी-खोटी सुननी पड़ेगी।

इन स्मृतियों में खोए-खोए माँ के बिस्तर पर लेट जाता हूँ। ऐसा लगता है कि मेरा बचपन लौट आया है। उस चारपाई पर जैसे माँ की गोदी में सोया हूँ। पालने में माँ मुझे झूला झुला रही है यह सुख और स्नेह बरसों बाद मिला है। मन कर रहा है कि यहीं सोया रहूँ कभी उठूँ ही नहीं।

अपने ऊपर आश्चर्य हो रहा है कि मेरी रचनाओं में गाँव है, वहाँ का पूरा अंचल है। गरीब लोग हैं, खेत खलिहान हैं। माँ है। उनका स्नेह है लेकिन उन वास्तविकताओं से खुद कितना दूर चला गया हूँ कोसों दूर। माँ के बिस्तर पर लेटा अपने भीतर के लेखक को ढूँढ़ने लगता हूँ पर वह कहीं नहीं है। उसके कई चेहरे हैं। या उन चेहरों पर कई तरह के मुखौटे लगाए गए हैं। अपने को उस शहरी परिवेश और इलीट सोसायटी में ऊँचा दिखाने के लिए। नाम, प्रतिष्ठा कमाने के लिए लोगों की वाह वाह लूटने के लिए पर उस उत्कर्ष का सही मायनों में मेरे भीतर के आदमी से जैसे कोई संबंध नहीं रहा है। अनायास फिर एक ओर रखी अपनी किताबों पर हाथ जाता है। उनका स्पर्श पुनः उसी उत्कर्ष पर ले जाता है। क्या हुआ माँ को नहीं बुलाया तो चलता है, सब कुछ चलता है। हम इक्कीसवीं सदी में जी रहे हैं, फिर क्यों उन रूढ़ियों का बोझ कंधों पर ढोए चलें। गाँव-पहाड़, गोबर-मिट्टी, खेत-खलिहान कागजों की पीठ पर उगते अच्छे लगते हैं, पर वास्तविक जीवन में तो नर्क है नर्क? फिर मैं तो माँ का सम्मान करने ही आया हूँ, इधर तो ऐसे भी लेखक हैं जो या तो माँ-बाप से अलग हो गए हैं या उन्हें किसी वृद्धाश्रम के हवाले कर दिया है। मैं माँ के चरणों में इन पुस्तकों को रख कर उनसे आर्शीवाद लूँगा पश्चाताप करूँगा वे खुश होंगी कि उनका बेटा कितना बड़ा आदमी है। लेखक है। वे पुस्तकें जैसे मेरे अहं को और भी भव्य बनाए जा रही हों।

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यही सब सोचते-विचारते माँ के सिरहाने पर हाथ पड़ता है। कुछ चुभता महसूस होता है। मैं लेटे-लेटे दायाँ हाथ पीछे करके सिरहाने के नीचे डालता हूँ। चौंक जाता हूँ। हड़बड़ी में उठता हूँ और सिरहाने को एक तरफ खींच देता हूँ। कोई किताब है। बाहर खींचता हूँ तो स्तब्ध रह जाता हूँ। आँखें उसके आवरण पर धँसती चली जाती हैं। मेरी साँस रुकने लगी है। जिस्म का सारा खून जैसे शिराओं में जम गया है। यह मेरी नई पुस्तक है। पागलों की तरह सिरहाने की तरफ के खिंदड़ों की तहों को हटाता हूँ और उसके नीचे रखी सभी किताबों को बाहर खींच लेता हूँ सभी मेरी हैं। भ्रम होता है कि कहीं अतीत में विचरते हुए मैंने ही अपना पैकेट वहाँ तो नहीं रख दिया है। पर वह पूर्ववत था। मेरे ही पास पड़ा हुआ। उसे खोलता हूँ। जो पुस्तकें मैं लाया हूँ वे सभी उसी में हैं। माँ के सिरहाने तो दूसरी प्रतियाँ हैं।

पहली पुस्तक हाथ में लेता हूँ। उसे उलटता-पलटता हूँ। उसके भीतर पृष्ठों में जगह-जगह घास के तिनके हैं। कुंबर हैं। माँ जब घास काटने घासणी में जाती होंगी तो वहाँ बैठ कर उसके पन्नों को उल्टा-पल्टा करती होंगी।

दूसरी पुस्तक उठाता हूँ। उसे देखने लगता हूँ। उसके पन्नों से सरसों के फूलों की भीनी-भीनी खुशबू आ रही है। पन्नों को उलटता-पलटता हूँ कई जगह पीले फूलों के पत्ते चिपके हैं एक-आध गेहूँ की बाली भी है। माँ जब खेतों में साग चुनने जाती होंगी तो बैठ कर उसके वरकों को देखती-बदलती रहती होंगी।

अब तीसरी किताब हाथ में लेता हूँ। यह मेरा उपन्यास है। उसके भीतर से रात की रानी की खुशबू आ रही है और कमरे में फैलने लगती है। अनायास ही नजर आँगन के उस पार चली जाती है। वहाँ रात की रानी का पौधा है। कितना बड़ा हो गया है। उसकी टहनियाँ चारों तरफ बिखरी हैं। मन बहुत पीछे चला जाता है। गर्मियों की रातें जब चाँदनी से नहाई होती तो माँ अक्सर मुझे गोदी में लिए यहाँ बैठा करती। कई कहानियाँ सुनाती। किताब के पृष्ठों के बीच रात की रानी के फूल पड़े थे। इसे माँ चाँदनी रातों में वहाँ बैठ कर देखा करती होंगी।

चौथी पुस्तक में आटे और लस्सी की सुगंध रची-बसी है। पृष्ठों पर जगह-जगह आटे सने हाथों की उँगलियों के निशान हैं। कहीं-कहीं मक्खन की चिल्हट ने अक्षरों को मिटा दिया है। माँ रोटियाँ पकाते या फिर दूध बिलाते इसे निहारती-अवलोकती होंगी।

पाँचवीं कृति अब मेरे हाथ में है। उसके पन्नों से घने अँधेरे की गंध आने लगती है। उसमें बीड़ी की बास घुल-मिल गई है। पुस्तक के वरकों को देखता-पलटता हूँ। कई जगह अक्षर धुल गए हैं। बीच-बीच में जली हुई बीड़ी की राख भी लगी है। एक जगह मरा हुआ जुगनू चिपक गया है। शायद माँ इसे घनी रात को बिस्तर पर हाथ में लिए बाँचती होगी। मेरी याद आने पर रो लेती होगी और फिर देर रात तक यूँ ही बैठी बीड़ी पीती रहती होगी।

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अब छठी पुस्तक सिरहाने के नीचे से खींचता हूँ। मन अस्थिर होने लगा है। भीतर बौखलाहट होने लगती है। माथे से पसीना चू रहा है। उस किताब के भीतर पिता की कई पुरानी तस्वीरें हैं। उसमें कहीं माँ है तो कहीं मैं हूँ। माँ अपने इस लेखक बेटे के वैभव और उत्कर्ष को पिता से स्मृतियों में बाँट लिया करती होंगी।

उसे किनारे रख कर सिरहाने में फिर कुछ ढूँढ़ने लगता हूँ। बिस्तर की तहों में एक और किताब मिलती है। उसे निकालता हूँ, यह मेरी सातवीं पुस्तक है। देखता हूँ तो आश्चर्य की सीमा नहीं रहती है। यह नई किताब है, इसका विमोचन सप्ताह पूर्व ही हुआ है। उसके वरकों से गोबर की गंध आ रही है। बाहर-भीतर कई जगह गोबर सने हाथों के निशान पड़े हैं। एक-दो जगह भेड़ की सफेद ऊन के रेशे भी हैं। माँ उसे गोशाला के आँगन में पशुओं के बीच बैठ कर देख लिया करती होंगी।

आँखों से आँसुओं की झड़ी लग गई है। याद नहीं आता कि अपने जीवन में कभी इतना रोया हूँ। मेरे भीतर का वैभव, उत्कर्ष, बड़े बने रहने का दंभ, बूँद-बूँद माँ के बिस्तर पर झरने लगा है। मैं जैसे उस बिस्तर की तहों में खटमल की तरह घुसता-धँसता चला जा रहा हूँ। मेरा रोयाँ-रोयाँ अचरज और शर्मिंदगी से भर गया है। सिर टाँगों के भीतर धँसता जा रहा है। इस दीनता-हीनता की स्थिति के बावजूद भी उस रोने का कोई सुख मुझे अधिक गिरने नहीं देता। ऐसा लगने लगता है कि माँ के कमरे की वे सभी चीजें मेरे अंतस में अगाध स्नेह और ममता के सागर उड़ेलती चली जा रही हों। मुझे सामान्य और सहज होने में मेरी भरपूर मदद करती चली जा रही हैं। मैं अपने को सँभालता हूँ। अचरज होता है कि मन हल्का हो गया है। बिल्कुल उसी तरह जैसे बचपन में किसी जिद में रोते-रोते माँ की गोद में सो जाया करता था और जब उठता तो बिल्कुल सहज।

तभी किसी की आवाज भीतर के सन्नाटे को तोड़ देती है।

दादी! दादी! अखबार।

माँ इस समय गोबर फेंक रही है। आवाज सुनते ही टोकरा नीचे फेंक दिया है और झटपट डाकिए के हाथ से अखबार छीन लिया है। मैं बिस्तर से उठ कर दरवाजे की ओट से सब कुछ देखता हूँ। वह अमर सिंह डाकिया है। उसका घर हमारे घर से कुछ दूरी पर है। वह बराबर माँ के पास आता-जाता रहता है।

सारी बातें समझ आने लगी हैं। माँ अखबार देख रही है। और डाकिया बीच के पृष्ठों में कुछ माँ को दिखा रहा है। माँ उस अखबार को भीतर ले जा कर कहीं गोशाला में रख देती है और पूर्ववत गोबर फेंकने लग गई है।

मैं माँ के बिस्तर पर बिखरी किताबों को समेटने लगता हूँ। और उसी तरह उनके सिरहाने रख देता हूँ। अपनी किताबों का पैकेट उठा कर बाहर निकल जाता हूँ। लग रहा है कि कई मनों बोझ किसी ने सिर पर लाद दिया है।

माँ अब बाहर का काम निपटा कर भीतर आ रही हैं। मैं बिल्ली के पाँव वहाँ से खिसक लेता हूँ।