माँ की हार | अंकिता रासुरी
माँ की हार | अंकिता रासुरी

माँ की हार | अंकिता रासुरी

माँ की हार | अंकिता रासुरी

घटते बढ़ते चाँद को देख-देखकर
माँ भूल गई थी गोल-गोल रोटियाँ बनाना
या कभी ठहर ही नहीं पाया उसकी आँखों में पूर्णमासी का चाँद
जिसका आकार देती वो अपनी रोटियों को
चूल्हे पर जलते उसके हाथ
उसी तीव्रता से जला देते रोटियों को भी
और उसके सपनों की ही तरह तैरती रह जाती
उसकी बनाई पनीली दाल आँखों के बीच
कोई देख ही नहीं पाया उसके सपनों का दफ्न हो जाना
क्योंकि सबके लिए वो एक माँ थी
प्रकृति के कुछ थोपे गए नियमों के तहत
एक बोझिल से शब्द को नकारते हुए
वह चुकाती रही पूरी जिंदगी किश्तों में
अब हार कर माँ मुझमें ढूँढ़ती है अपना चेहरा
तथाकथित माँओं की तरह
और सच कहूँ ये माँ की ही हार नहीं
ये समूची इनसानी सभ्यता की हार है।

READ  अपने समय की अभिधा में | अमरेंद्र कुमार शर्मा

Leave a comment

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *