क्या मैं अकेली पड़ जाऊँगी ?
क्या मैं अकेली पड़ जाऊँगी ?

क्या मैं अकेली पड़ जाऊँगी ? | आल्दा मेरीनी

क्या मैं अकेली पड़ जाऊँगी ? | आल्दा मेरीनी

जब, मुझमें, अंतरंग आग भड़केगी
जो इन तूफानों का स्रोत थी
और मैं, धीर, मुक्त, जिंदा होऊँगी,
तो क्या मैं अकेली पड़ जाऊँगी?
और शायद जड़ से उखाड़ दूँगी
प्यार के लिए मेरी मुल्तवी उम्मीद,
मैं याद रखूँगी कि हर मानव सीमा का फल
स्मृति का अभाव है,
जो मुझे डुबा देता है होने में…
मगर कल मेरी दीक्षा के बाद से
मैं अब तक तुम्हारे हाथ के स्पर्श से काँप जाती हूँ,
जीवन का हर संकेत जो मुझे तकलीफ देता है
तुम्हारे नियत उपायों के भीतर आकारहीन पड़ा है।

READ  सपनों की भटकन | रति सक्सेना

Leave a comment

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *