कुछ मिले काँटे | मानोशी चटर्जी

कुछ मिले काँटे | मानोशी चटर्जी

कुछ मिले काँटे
मगर उपवन मिला,
क्या यही कम है
कि यह जीवन मिला।

घोर रातें अश्रु बनकर बह गईं,
स्वप्न की अट्टालिकाएँ ढह गईं,
खोजता बुनता बिखरते तंतु पर,
प्राप्त निधियाँ अनदिखी ही रह गईं,
भूल जाता मन कदाचित सत्य यह,
आग से तप कर निखर कंचन मिला।

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यदि न पाई प्रीति तो सब व्यर्थ है,
मीत का ही प्यार जीवन अर्थ है,
मोह-बंधन में पड़ा मन सोचता कब
बंधनों का मूल भी निज अर्थ है,
सुख कभी मिलता कहीं क्या अन्य से?
स्वर्ग तो अपने हृदय-आँगन मिला।

वचन दे देना सरल पर कठिन पथ,
पाँव उठ जाते, नहीं निभती शपथ,
धार प्रायः मुड़ गई अवरोध से,
कुछ कथाएँ रह गईं यूँ ही अकथ,
श्वास फिर भी चल रही विश्वास से,
रात्रि को ही भोर-आलिंगन मिला।

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क्या यही कम है
कि यह जीवन मिला।