पहले जमीन, जमीन थी ऊपर घास, नीचे, बहुत नीचे कोयला ऊपर हवा, नीचे बहुत गहरे एक आग आदमी जो वहाँ आया तलुओं के नीचे आग महसूस करता रहा देखता रहा जमीन का जादू कोयले का काला सपना कुछ और लोग आए गैंती, फावड़े और बेलचे लिए रोटी की तलाश उन्हें जमीन के नीचे ले गई एक सड़क जमीन से शुरू होकर नीचे पाताल में उतरती चली गई मजदूरों ने जमीन पहाड़ एक किए जिस्म काले और खून काला किया जमीन कोयला उगलती रही जमाना आगे बढ़ता गया नीचे पाताल में एक अंतरिक्ष था जहाँ गर्म रोटियाँ कलाबाजिया कर रही थीं अपनी गैंती लिए मजदूर उनके पीछे भाग रहे थे निरंतर
दो
जमीन ऐसी जैसे मेरे कस्बे की जमीन घास भी थी जैसी होती है हर कहीं सूखी और यहाँ वहाँ जली हुई बेडौल रास्तों पर भारी पहियों के ताजा निशान उसने मुझसे कहा यहाँ कोई तीन हजार मजदूर खान में काम कर रहे हैं वहाँ जमीन पर कहीं कोई भी नहीं था कहीं दूर शहर की बत्तियाँ खिलखिला रही थीं उन्हें आमने सामने देखने के लिए मेरा मजदूर होना जरूरी था वे सब वहाँ थे नीचे खून पसीने की कार्यवाही में जुटे सुनते हुए ट्रालियों और विस्फोटों का शोर सिर्फ देखकर उन्हें नहीं देख सकता था मैं वहाँ कोयले की काली दुनिया में उतरना एक जरूरी शर्त थी
तीन
आबिद जवानी में वहाँ प्रविष्ट हुआ था कोयले की मुश्किल दुनिया में उतरने का साहस लेकर आबिद को उसके गाँव में फिर कभी किसी ने नहीं देखा उसके दोस्त सोचने लगे थे आबिद कहीं चला गया है आबिद कहीं चला गया था बरसों बाद एक काला आदमी ऊपर दिखलाई दिया वह नहीं जो नीचे उतरा था कभी पर नाम वही आबिद नंबर भी वही 2720 फेफड़ों में गर्द और कालिख लग चुकी थी किसी ने बतलाया आबिद का नंबर भी 2720 था
वहाँ उस दैत्याकार मशीन का अपना विषाद था उसकी समूची लौह आकृति उदास थी उस पर बन चुके थे धूल और खरोचों के निशान जैसा उससे कहा जाता रहा वह करती रही जमीन में अपने विशालकाय पंजों को उतारकर बारूद लगाती रही उसका आविष्कार हुआ था गुलामी को मिटाने के लिए वह बतलाती रही कोयले का पता ताकि मजदूर खुली हवा में जी सके वहाँ मशीन के दैत्याकार चेहरे पर विषाद ही विषाद था
पाँच
एक बहुत बड़ा हमाम था वहाँ पहली खेप से छूटे मजदूर वहाँ घुस रहे थे काली हाफ पैंट डबल सोल के जूते और सिर पर रखा भारी टोप उस हमाम में देखा सैकड़ों मजदूरों को नहाते हुए दामोदर का मटमैला पानी एक सी रफ्तार से नालियों में बह रहा था सामने टीले पर बने एक बंगले में खदान का बड़ा अफसर पानी के टब में डूबा सिगार पी रहा था
छह
वह उन्नीसवीं सदी की बात है सदियाँ कभी कभी बीतती नहीं रुकी हुई हैं अब भी शताब्दियाँ कहीं पावेल कोर्चागिन ऐसी ही किसी जगह काम किया करता था माँ इसी तरह पावेल का टिफिन लिए फैक्टरी के दरवाजे पर जाती रही होगी जिस तरह यह बच्ची अपने पिता के लिए अल्युमिनियम के डिब्बे में रोटी ले जा रही है ठीक इसी तरह तनख्वाह के दिन पावेल पंक्ति में खड़ा अपनी बारी का इंतजार किया करता होगा जिस तरह यह मजदूर पावेल जरूर दुनिया के हर मुल्क में जन्म लेता रहा है कोयला खान से लौटते इस हुजूम में मैं आज पावेल को ढूँढ़ रहा हूँ आज किसी किसी की आँखों में वही चमक है जो कभी पावेल की आँखों में थी
हमारी नाव | नरेंद्र जैन हमारी नाव | नरेंद्र जैन ये भाषा की थकान का दौर है विचार और स्वप्न की मृत्यु यहीं से शुरू होती है कविता जैसी भी है जहाँ भी है जितनी भी है बस डूबी है अंधकार में संवाद आधे-अधूरे गिरते लडखड़ाते हाँफते बस, थोड़ा सा संगीत है कहीं जाने कैसे वो भी बचा हुआ है निर्जन में उसी…
हज़ारासिंग का गिटार | नरेंद्र जैन हज़ारासिंग का गिटार | नरेंद्र जैन (70 के दशक के प्रख्यात गिटारवादक हज़ारासिंग के सम्मान में यह कविता) मेरी गली में रहने वाला बिजली मैकेनिक हज़ारासिंग की बजाई गिटार की धुन में डूब गया है वह कहता है हज़ारासिंग मेरा प्रिय वादक है कल बिजली की भारी मशीनों पर झुका वह जरूर इसी धुन को गुनगुनाएगा मैं खु़श होता…
सावित्री | नरेंद्र जैन सावित्री | नरेंद्र जैन आठ बरस की सावित्री बर्तन माँजती है अपने साँवले हाथों से जमाती है बर्तन खिलौनों की तरह अभी दुबेजी के यहाँ से आई है अब गुप्ताजी के घर बासन माँजेगी सावित्री की माँ राधोबाई भी यही काम करती है अनुभवी है इसलिए निपटाती है पाँच घरों के बर्तन राधोबाई कहती है कि उसकी माँ संतोबाई और…
सरकार का इस तरह होना | नरेंद्र जैन सरकार का इस तरह होना | नरेंद्र जैन जहाँ तक सरकार की कार्य कुशलता अथवा उसकी लोक कल्याणकारी मुद्रा का प्रश्न है मैं ऐसी प्रजातांत्रिक प्रणाली और छद्म विचार सरणियों का कायल कभी नहीं रहा लेकिन मैं यह कहने से भी रहा कि इस तरह की सरकार या सरकार का इस तरह होना जनपदीय आदर्शों…
सूखी नदी | नरेंद्र जैन सूखी नदी | नरेंद्र जैन यहाँ से करीब ही बहती है सूखी हुई नदी यहाँ बैठे-बैठे सुनता हूँ सूखी नदी की लहरों का शोर देखता हूँ एक नौका जो सूखी नदी की लहरों में बढ़ी जा रही एक सूखी नदी जीवंत नदी की स्मृति बनी हुई है एक सूखी नदी के किनारे जल से भरा खाली घड़ा…
विलाप | नरेंद्र जैन विलाप | नरेंद्र जैन (संदर्भ : दंगाग्रस्त भोपाल) वनस्पतियों, फलों और कोमल चीजों को काटता हुआ जब प्रविष्ट होता है मनुष्य की देह में तब विलाप कर रहा होता है चाकू वह धार-धार रोता है और दाँत पीसते हत्यारे मुस्कराते हैं यातना बढ़ती है और जले हुए कमरे में रखे हारमोनियम से फूटती है एक उदास धुन जहाँ खून जम रहा…
वह एक जो जा चुका है | नरेंद्र जैन वह एक जो जा चुका है | नरेंद्र जैन एक अँधेरे घिरे कमरे में शोकगीत गाती हैं औरतें रोज यहाँ से गुजरते समय मैं महसूस करता हूँ पकाये गए चमड़े की बू यह घर जो आज नहीं तो कल जरूर गिर पड़ेगा वह एक जो जा चुका है अपनी लंबी बीमारी के बाद एक निश्चित…
वर्णन | नरेंद्र जैन वर्णन | नरेंद्र जैन आज घटित हादसे के बारे में संक्षेप में बतलाओ वर्णन तथ्यपरक हो और लगे तर्कसंगत संदेह के लिए जगह न बचे शब्दों को दी जाए इतनी छूट जितनी वर्णन के लिए जरूरी हो बेमानी है जिक्र अवांतर प्रसंगों का “लोग मारे ही जा रहे हैं” यह होगा एक अमूर्त वाक्य संक्षेप में यह कि जुबान…
व्यवस्था | नरेंद्र जैन व्यवस्था | नरेंद्र जैन इस आदमी के सामने जमीन पर एक थाली है इसमें कोई रोटी नहीं है लेकिन वह अँगुलियों से तोड़ता है कौर और खाने लगता है वह थाली की ओर देखता है और व्यस्त रहता है चबाने की क्रिया में उसकी थाली खाली है अब वह उठता है और एक डकार लेता है वह एक तृप्त व्यक्ति का…
वे | नरेंद्र जैन वे | नरेंद्र जैन एक दरवाजा वहाँ खुला हुआ है उन्होंने एक दरवाजा मेरे लिए खुला रखा है वे सब एक दरवाजे के पीछे खड़े मेरा इंतजार करते हैं वे सोचते हैं मैं कभी खुले दरवाजे में प्रवेश करूँगा वे सब बेहद चालाक हैं उन्होंने एक दरवाजा मेरे लिए खुला रख छोड़ा है