हुई बेसुरी जब से
चीख रही है संसद।

हरदम उड़ती हुई
हवाओं में विपदाएँ
बाजारों में महिमामंडित
हैं छलनाएँ
यथाशक्ति भरमाने की
चल रही कवायद।

कीड़े लगते संवादों की
खड़ी फसल में
काँटे उगते दुविधाओं के
मन मरुस्थल में
धीरे-धीरे जड़ से
उखड़ रहा है बरगद।

लिखता है जो नीमतिक्त
भाषा में लेखक
उसका भी तो पारायण
कुछ कर लें पाठक
इस पतझर में
कोई फूल बचा हो शायद।

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