खंडहर | मंजूषा मन

खंडहर | मंजूषा मन

धूप, गर्मी, वर्षा सहतीं,
चुप रहतीं
हरी काली
काई लगी दीवारें
ढहते गुंबद
गिरती मीनारें।
आसपास झाड़ियाँ
और दीवारों पर
उग आए पीपल बबूल।

टूटी खिड़की
फूटे झरोखे से
बाहर झाँकता
सन्नाटा।
आहटों और दस्तकों का
इंतजार करता।
इंतजार करता
किसी अपने का,
थक कर
फिर दुबक जाता है
किसी अँधेरे कमरे के
टूटे-फूटे कोने में
निराश हो कर।
यही है खंडहर
जिंदगी का।

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