खलल | नरेंद्र जैन

खलल | नरेंद्र जैन

खलल सिर्फ दिमाग में हो रहा है 
धुआँ उठता नहीं, चटखती नहीं कोई चीज 
धीरे-धीरे सुलगती बारूदबत्ती वहाँ बढ़ती है 
विस्फोट की तरफ 
कुछ मूल्य हैं जो गिरते लगातार 
होने गर्क एक अंधकार में 
दिमाग है जहाँ खलल पैदा हो रहा 
नहीं दिमाग के कोई हाथ पाँव 
निगाह भर है जो दिखती नहीं किसी को 
हवा में मार दिया जाता है यह दिमाग 
मसल दिया जाता मच्छर की तरह 
होता मच्छर यह दिमाग इस बेमानी तंत्र में 
होता है छिड़काव हवा में विचारनाशक जहर का 
इसे न दिन को चैन है न रात को 
कालकोठरी में अपनी चीखता ही रहता है 
भूस्खलन होता है और गिरती है विशालकाय चट्टान 
करती ध्वस्त कोशिकाओं को 
होता यह मस्तक भूकंपित 
उठाता ज्वार रक्त में 
छटपटाता है आदमी और उठता है अंधड़ 
पत्थरों में नहीं होता पैदा खलल 
चीजें टूटती हैं, कुछ तोड़ दी जाती हैं 
कोई खामोश रहता है कुछ देर 
किसी दिन उठ खड़ा होता है

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