कवि की जेब में | बाबुषा कोहली

कवि की जेब में | बाबुषा कोहली

दुनिया भर के दुख मरोड़ खाते है उसके ललाट की अनगिन सलवटों में
वो कानों में खचाखच वाहवाहियाँ भरे हुए चलता है

उसकी डायरी में रोटी की गोलाई आकार पाती है
कंठ से उपजे स्वर गढ़ देते हैं बेघरों के लिए मकान
और उसके चिंतन में कपड़े का विस्तार है
बात रोटी, कपड़े और मकान तक ही कहाँ ठहरती है
छोटे आकारों वाले बड़े-बड़े सरोकार हैं

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ईश्वर से वरदान नहीं माँगता
माँगता है तो बस एक फावड़ा
कि दुनिया भर की समस्याएँ खोद-खोद कर अंतरिक्ष में फेंक आए

दुखी है वो चिंतित है व्यस्त है
उसकी जेब में तितर-बितर कागज के टुकड़े हैं
जल्दबाजी में लिखा गया फोन नंबर या पता भी
पेन की नोक पर अटका हुआ कोई मिसरा या कोई छंद या चिंता
एक पहचान पत्र है जो असल पहचान नहीं बताता उसकी
क्रेडिट कार्ड है जो सामान से ज्यादा कुछ खरीद नहीं सकता
पत्नी के बालों की बासी महक है
बटुए में लगी तस्वीर में मुस्कुराती तो दिखती है बेटी
याद नहीं पड़ता
कि आखिरी बार कब अपने नून की बोरी को काँधे पर लाद कर
घर भर में व्यापार किया था
या राजकुमारी का घोड़ा बन ग्यारह सौ फीट बराबर पृथ्वी की सैर पर निकला था

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ईश्वर से वरदान नहीं माँगता
चाहता है वो कोई जेबकतरा
कि हृदय के ऐन ऊपर रखी जेब सीने पर भारी होती जाती है

उसकी जेब में एक स्थगित क्षमा याचना है