करतब | बसंत त्रिपाठी

करतब | बसंत त्रिपाठी

जगमगाते धमकाते शहर के
सीलन भरे अँधेरों से निकलकर
जो लोग बिखर जाते हैं शहर में
उनके लिए जीना एक करतब है
तनी रस्सियों पर बिना बाँस के
संतुलन साधने का करतब

दौड़ते हैं दिन-दिन भर
बरसते दिन और चिलचिलाती धूप में भी
खींचते हैं रिक्शा, हाथठेला
जूते सिलते चमकाते
बस एक लाल गमछे के सहारे
निकल आते सैंतालिस डिग्री गर्मी बरसाते
सूरज के ऐन सामने

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छायादार जितने पेड़
कि जिनके नीचे खड़े होकर
फाँकी जा सकती थी थोड़ी-सी छाया
उखाड़ फेंके गए
चौड़ी सड़क की योजनाओं के चलते

आखिर किसके लिए बिछाई गई हैं
ये कोलतार की फिसलती हुई सड़कें?

वे जो तनी रस्सी पर चल रहे हैं
सड़कों से हकाल दिए गए हैं
किनारे अपने थके पैरों

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और गाटर लगी पहियों वाली साइकिलों पर सवार
ऐसे चलते हैं
जैसे गुजरी शताब्दी के निरपराध कैदी

बिला शक यह चमचमाता शहर है
इसमें तनी रस्सियों पर करतब दिखाने वालों की चीखें
बाकायदा शामिल हैं
और दिक्कत यह कि इसे
सब जानते हैं
पर कहता कोई नहीं है