कमजोर | आभा बोधिसत्व

कमजोर | आभा बोधिसत्व

मनुष्य की तरह
फूल भी कमजोर थे
छुए जाने से मुरझा जाना,
शब्द की तरह अर्थ भी कमजोर थे
जहाँ लिखे जाने पर कलम की स्याही सूख जाती थी,
क्या लिखा जाना क्या छोड़ा जाना अकारथ
और मजबूत तथ्यों में कोई सुलझाव नहीं था विचार वहाँ
जहाँ हर दिन रात की तरह गाए जाते थे
रोवनवा पाख की तरह चलती थी कविता
पीली आँखों से निकली पीली कविता
कौन पढ़े, कौन गढ़े उनका सत्य
जो रचते हैं…
क्या वे वहीं बसते हैं कमजोर लोग
जिन्हें कमजोरों से बदला लेने का हुनर आता है
और अपनी करनी को शहद की तरह कोमल
बाती में पूर कर रखना आता है बात काली
क्या वे शब्द कोमल थे या नहीं या उधार के
विचार में उगें शब्द कोमल विचार
अघा कर बेहयाई से लाचार कमजोर
लेखक खड़ा था
बड़ा बन
भावनाओं का दोहन जहाँ
जरूरी था
कमजोर पड़ते मन पर वहीं वार किया
धार किया विचार तुच्छ अनर्गल प्रलाप…
मनुष्य की तरह पेड़ कमजोर नहीं थे
वे देते थे जड़ से जुड़ कर अपनी खेती
दोमुँही बात नहीं, घात नहीं, ना ही कमजोर कविता

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