कहाँ गए वो लोग | नीरज कुमार नीर
कहाँ गए वो लोग | नीरज कुमार नीर
औरों के गम में रोने वाले
संग दालान में सोने वाले।
साँझ ढले मानस का पाठ
सुनने और सुनाने वाले।
होती थी जब बेटी विदा
पड़ोस की चाची रोती थी
बेटी हो किसी के घर की
अपनी बेटी होती थी
फूल खिले औरों के आँगन
मिलकर सोहर गाने वाले।
पाँव में भले दरारें थी
पर हँसी निश्छल निर्दोष
हर दिन उत्सव उत्सव था
एकादशी हो या प्रदोष
कच्चे मन के गाछ पर
खुशियों के फूल खिलाने वाले।
पूजा हो या कार्य प्रयोजन
पूरा गाँव उमड़ता था
किसी के घर विपत्ति हो
सामूहिक रूप से लड़ता था
किसी के भी संबंधी को
अपना कुटुंब बताने वाले।
गाँव की पंचायतों में
स्वयं परमेश्वर बसता था।
सहकारी परंपरा से
सारा कार्य निबटता था।
किसी के घर के चूने पर
मिलकर छप्पर छाने वाले।
कहाँ गए वो लोग।
कहाँ गए वो लोग।