झरते हैं शब्द-बीज | बुद्धिनाथ मिश्र
झरते हैं शब्द-बीज | बुद्धिनाथ मिश्र
आहिस्ता-आहिस्ता
एक-एक कर
झरते हैं शब्दबीज
मन के भीतर।
हरे धान उग आते
परती खेतों में
हहराते सागर हैं
बंद निकेतों में
धूप में चिटखता है
तन का पत्थर।
राह दिखाते सपने
अंधी खोहों में
द्रव-सा ढलता मैं
शब्दों की देहों में
लिखवाती पीड़ा है
हाथ पकड़कर।
फसलें झलकें जैसे
अँकुरे दानों में
आँखों के आँसू
बतियाते कानों में
अर्थों से परे गूँजता
मद्धिम स्वर।