जाने किन दिनों के इंतजार में | रेखा चमोली

जाने किन दिनों के इंतजार में | रेखा चमोली

महानगरीय लोगों को
याद आते हैं
पहाड़ी लोग
गर्मियों की छुट्टियों की तरह
और उनकी यादें
प्रमुख पर्यटक स्थलों के नामों की तरह
सामान्य ज्ञान का विषय बन जाती हैं
महानगर
सुखा देता है
संवेदनाओं की जड़ों को
भावनाओं के झरनों को सोख
उसके ऊपर
उगा देता है
कंक्रीट के जंगल
ऐसे में
कहीं दूर किसी पहाड़ी गाँव में
अलसुबह से देर रात तक
घर, खेत, जंगल, बाजार
के बीच
कमरतोड़ मेहनत के बाबजूद
जाने कैसे
दूर किसी महानगरीय जन की याद में
हर समय
झॅुझलाती, बेचैन होती, अपने में मुस्कुराती रहती है
वह
जाने किन दिनों के इंतजार में।

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