जैसे तुम हो वैसा लिखना | रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति
जैसे तुम हो वैसा लिखना | रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति

जैसे तुम हो वैसा लिखना | रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति

जैसे तुम हो वैसा लिखना | रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति

मैं तुम्हें वैसे ही लिखना चाहता हूँ जैसी तुम हो 
लेकिन तुम वह नहीं हो जैसा तुम्हें देखा गया 
किसी को देख कर नहीं कहा जा सकता कुछ

नहीं हो तुम धूप छाँव और न मन की छवि हो 
न झील का पूरा प्रतिबिंब हो तुम

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लहरों जैसा लिखने पर भी नहीं हो वैसी 
तुमको सुबह या शाम भी नहीं लिखा जा सकता 
हर जगह हो तुम और हर जगह तुम नहीं हो 
तुम सब मैं सब जैसी हो – तुमको क्या लिखूँ

तुम्हें पूरा लिखने के लिए क्या करूँ 
तुमको तुम जैसा लिखने के लिए कहाँ से शुरू करूँ

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