हुसेन के नाम | कुमार अनुपम

‘माँ कभी नहीं मरती’ –

तुमने बचपन में अदेखी

अपनी माँ को जन्म दिया फिर से

इस तरह

‘मदर’ की अमरता साबित हुई

पंढरपुर की सड़क पर

जो औरत है

कमर पर बच्चे को वत्सलता से सँभालती बहुविधि

सर पर थामे हुए गठरी

उसे तुमने ही बनाया ‘भारतमाता’

उन्मत्त साँड़ का सामना करती हुई शक्तिमयी

यह दृश्य

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हमारे समय के लिए

अब अपरिचित नहीं है

उसी साँड़ के ककुद पर

संतुलित करते हुए नई रौशनी भरी लैंप

तुमने जीने की कला सीखी

और यायावरी की राह ली

यह बुद्ध की ही राह तो थी

हुसेन!

तुम्हारी साइकिल पर टँगे हैं

इंदौर के गुजिश्ता दिन

और

लालटेन और छाता

उस साइकिल से सटी

खड़ी है ‘गजगामिनी’

और तुम्हारी

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विश्व की वह सबसे सुंदर स्त्री

वह दलित संघर्ष भरी लड़की ‘मायावती’

जिसे तुम्हारे कैनवस से अभी बाहर आना था

और हाँ

‘स्पाईडर एंड द लैंप’ की ‘पंच देवियाँ’

जिनमें एक के हाथ में झूल रही मकड़ी

मुझे जाने क्यों

तुम्हारे कट्टर कलाविरोधी ही लगते हैं

अपनी औकात में लटकते हुए

हुसेन

तुम्हारे आख्यान

किवदंतियों की तरह मकबूल हो गए हैं

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कला से जगत तक आक्षितिज

जिस पर

अब बाजार भी फिदा है

लेकिन

एक अतृप्ति जो आनुवंशिक थी तुम्हारे भीतर

उसके खिलाफ भी लड़ते रहे आजीवन

एक अपनी सी लड़ाई

और कला को विजय दिलाई

हुसेन

कर्बला से

तुम्हारे अश्व लौट रहे हैं

अपनी शक्ति से भरे

वे थके नहीं हैं

उन्हें तय करनी है

तुम्हारे कैनवस के नामालूम फैलाव

की अभी अनंत यात्रा…