हर सुबह होंठों को चाहिए कोई एक नाम यानी एक खूब लाल और गाढ़ा-सा शहद जो सिर्फ मनुष्य की देह से टपकता है
कई बार देह से अलग जीना चाहते हैं होंठ वे थरथराना-छटपटाना चाहते हैं देह से अलग फिर यह जानकर कि यह संभव नहीं वे पी लेते हैं अपना सारा गुस्सा और गुनगुनाने लगते हैं अपनी जगह
कई बार सलाखों के पीछे एक आवाज एक हथेली या सिर्फ एक देहरी के लिए तरसते हुए होंठ धीरे-धीरे हो जाते हैं पत्थर की तरह सख्त और पत्थर के भी होंठ होते हैं बालू के भी राख के भी पृथ्वी तो यहाँ से वहाँ तक होंठ ही होंठ है
होंठों को हर शाम चाहिए ही चाहिए एक जलता हुआ सच जिसमें हजारों-हजार झूठ जगमगा रहे हों होंठों को बहुत कुछ चाहिए उन्हें चाहिए ‘हाँ’ का नमक और ‘ना’ का लोहा और कई बार दोनों एक ही समय
पर असल में अपना हर बयान दे चुकने के बाद होंठों को चाहिए सिर्फ दो होंठ जलते हुए खुलते हुए बोलते हुए होंठ
सृष्टि पर पहरा | केदारनाथ सिंह सृष्टि पर पहरा | केदारनाथ सिंह जड़ों की डगमग खड़ाऊँ पहनेवह सामने खड़ा थासिवान का प्रहरीजैसे मुक्तिबोध का ब्रह्मराक्षस -एक सूखता हुआ लंबा झरनाठ वृक्षजिसके शीर्ष पर हिल रहेतीन-चार पत्ते कितना भव्य थाएक सूखते हुए वृक्ष की फुनगी परमहज तीन-चार पत्तों का हिलना उस विकट सुखाड़ मेंसृष्टि पर पहरा…
सूर्यास्त के बाद एक अँधेरी बस्ती से गुजरते हुए | केदारनाथ सिंह सूर्यास्त के बाद एक अँधेरी बस्ती से गुजरते हुए | केदारनाथ सिंह भर लोदूध की धार कीधीमी-धीमी चोटेंदिये की लौ की पहली कँपकँपीआत्मा में भर लो भर लोएक झुकी हुई बूढ़ीनिगाह के सामनेमानस की पहली चौपाई का खुलनाऔर अंतिम दोहे कासुलगना भर लो…
सन ४७ को याद करते हुए | केदारनाथ सिंह सन ४७ को याद करते हुए | केदारनाथ सिंह तुम्हें नूर मियाँ की याद है केदारनाथ सिंहगेहुँए नूर मियाँठिगने नूर मियाँरामगढ़ बाजार से सुरमा बेच करसबसे आखिर मे लौटने वाले नूर मियाँक्या तुम्हें कुछ भी याद है केदारनाथ सिंहतुम्हें याद है मदरसाइमली का पेड़इमामबाड़ा तुम्हें याद…
सुई और तागे के बीच में | केदारनाथ सिंह सुई और तागे के बीच में | केदारनाथ सिंह माँ मेरे अकेलेपन के बारे में सोच रही हैपानी गिर नहीं रहापर गिर सकता है किसी भी समयमुझे बाहर जाना हैऔर माँ चुप है कि मुझे बाहर जाना है यह तय हैकि मैं बाहर जाऊँगा तो माँ…
शाम बेच दी है | केदारनाथ सिंह शाम बेच दी है | केदारनाथ सिंह शाम बेच दी हैभाई, शाम बेच दी हैमैंने शाम बेच दी है! वो मिट्टी के दिन, वो घरौंदों की शाम,वो तन-मन में बिजली की कौंधों की शाम,मदरसों की छुट्टी, वो छंदों की शाम,वो घर भर में गोरस की गंधों की शामवो…