गिरने लगी है बर्फ
पूस के शुरू होते ही
और लकड़ी के अभाव में
बहाई जाने लगी हैं लाशें
बिना जलाए ही

लोग ठकुआए हुए टुकुर-टुकुर ताक रहे हैं
ओरा गया है उनका विश्वास
न जाने कहाँ है सरकार!

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जीतेन्द्र श्रीवास्तव की रचनाएँ

साहब लोग रेनकोट ढूँढ़ रहे हैं | जितेंद्र श्रीवास्तव | हिंदी कविता

हजारों टन अनाज सड़ गयासरकारी गोदामों के बाहर” यह खबर कविता में आकर पुनर्नवा नहीं हो रहीयह हर साल का किस्सा हैहर साल सड़ जाता है हजारों टन अनाजप्रशासनिक लापरवाहियों से हर साल मर जाते हैं हजारों लोगभूख और कुपोषण सेहर साल कुछ लोगों पर कृपा होती है लक्ष्मी कीबाढ़ हो आकाल हो या हो…

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स्मृतियाँ | जितेंद्र श्रीवास्तव | हिंदी कविता

स्मृतियाँ सूने पड़े घर की तरह होती हैंलगता है जैसेबीत गया है सब कुछ पर बीतता नहीं है कुछ भी आदमी जब तैर रहा होता हैअपने वर्तमान के समुद्र मेंअचानक स्मृतियों का ज्वार आता हैकुछ समय के लिएऔर सब कुछ बदल देता है अचानक बेमानी लगने लगता हैतब तक सबसे अर्थवान लगने वाला प्रसंगऔर जिसे…

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सबसे हसीन सपने | जितेंद्र श्रीवास्तव | हिंदी कविता

अँधेरे में कुछ नहीं दिखतान घर   न पेड़   न गड्ढे   न पत्थरन बादल   न मिट्टी   न चिड़ियाँ-चुरुँगहाथ को हाथ भी नहीं सूझता अँधेरे में पर कैसा आश्चर्य!दुनिया के सबसे हसीन सपनेहमेशा देखे जाते हैं अँधेरे में ही।