मेरी हथेली पर 
आ बैठी एक चिड़िया 
चोंच में पतंग लिए 
बादल सने पंखों को खुजाती संकोच में 
कहीं से उड़ कर आई है, चहक रही है 
उसकी आँखों में मरे हुए कल की देह पर उगी 
कामिनी है 
उसकी देह पर सूखी चोटों के गहरे निशान हैं 
यूँ आ बैठी है मेरी हथेली पर 
कि जाने कब से भरोसा रहा हो मुझ पर 
जबकि ग़ैर हूँ पूरी तरह से 
मैं असंख्य पिजड़े लिए अपने पिंजड़े में घूमता हूँ 
अपने सींखचों से उँगली बाहर निकाल टटोलता हूँ 
अरसे से सूखी हुई टहनी बादल को छूते ही 
चेतना से झनक कर खिल उठती है 
मोर नाच उठते हैं 
मेरे आदिम जंगल में 
नसों में थकी नदी हहराती हुई उमड़ उठती है 
आकुल समुद्र के उफ़ान में 
कब का डूब चुका एक शहर 
सतह के बाहर ऊँघता सिर उठाता है

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आ बैठ मेरे कंधे पर

मेरी देह की झरती पलस्तर पर 
लदी है दुनिया 
झुनझुनों सी लटकी ज़िम्मेदारियाँ 
जाँघों से टकरा कर बजती रहती हैं 
कोहनी से झरी मिट्टी के भीतर एक दूब उगी है आज ही 
सिली ज़ुबाँ बोलने को तड़प उठी 
जब 
वक़्त आया, शब्द नाकाफ़ी लगे 
मैं चलता रहा नक्षत्रों पर उल्काओं के बीच 
चुप रहा 
चुप रहा 
चुप रहा

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घुटो मेरी घुमड़ में 
भटको मेरे बियाबाँ में 
गरजो मेरे विस्फोट में

मेरे माथे पर नाच 
चहक मेरी जिव्हा पर 
कुछ ऐसे कि शब्द न उगें 
लकीर न जन्मे रंग न मिलें 
कुछ ऐसे कि असंज्ञ हो संयोग यह 
भाषा का प्राण से