हर कोई | लाल्टू

हर कोई | लाल्टू

हर किसी की ज़िन्दगी में आता है ऐसा वक्त
उठते ही एक सुबह
पिछले कई महीनों की प्रबल आशंका
सम्भावनाओं के सभी हिसाब किताब
गड्डमड्ड कर
साल की सबसे सर्द भोर जैसी
दरवाजे पर खड़ी होती है

तब हर कोई जानता है
ऐसा हमेशा से तय था फिर भी
कल तक उसकी सम्भावनाओं के बारे में
सोचते रह सकने का हर कोई
शुक्रिया अदा करता है
उस अनिश्चितता का जो
बिना किसी बयान के
होती चिरन्तन

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फिर हर कोई
होता है तैयार
सड़क पर निकलते ही
‘ओफ्फो! बहुत गलत हुआ’ सुनने को
या होता विक्षिप्त उछालता इधर उधर पड़े पत्थरों को
या अकेले में बैठ चाह सकता है
किसी की गोद में
आँखें छिपा फफक फफक कर रोना

हर कोई गुज़रता है इस वक्त से
अपनी तरह और कभी
डूबते सूरज के साथ
लौटा देता है वक्त उसी
समुद्र को

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फेंका जिसने इसे पुच्छल तारे सा
हर किसी के जीवन में. (इतवारी पत्रिका – 1997)