हमारे समय में इंद्र | राकेश रेणु
हमारे समय में इंद्र | राकेश रेणु

हमारे समय में इंद्र | राकेश रेणु

हमारे समय में इंद्र | राकेश रेणु

एक ऊँची मीनार थी
शहर के बीचों-बीच
वहाँ खड़ा होकर बोलने वालों की
आवाज सुनी जा सकती थी दूर-दूर तक
देखे जा सकते थे उनके चेहरे
सूर्य की आभा से दीप्त
कहते हैं, वहाँ पहुँचने का मार्ग बेहद
दुर्गम था मानसरोवर की यात्रा करने जैसा
रहा होगा वहाँ पहुँचना
कुछ लोग
जो वहाँ पहुँच गए वहीं रहे
अर्से तक
कहते हैं व्यस्त हैं वे हमारे लिए
नए शब्दकोष गढ़ने में
बीच-बीच में
उनकी झलक दिखाई दिया करती दैदिप्यमान
वे कुछ नए शब्द उछालते, कुछ नई
विरुदावलियाँ, आत्मानुशासन के नियम
समय-सापेक्ष
हमेशा डरे रहते
कोई ऊपर आने की कोशिश न करे
वहाँ पहुँचने के मार्ग अवरुद्ध हो जाते
सीढ़ियाँ नदारद
ताउम्र बने रहते वे वहीं
पथप्रदर्शक बने
जो आगे आने की सामर्थ्य रखते उन्हें
कहा जाता – थोड़ा और प्रयास करो, अभी विकास
करो
चापलूसों को कल का इंद्र कहा जाता
डाली पहुँचाने वालों के लिए सुरक्षित
कर दिया जाता भविष्य सुरंगें बनाई जातीं नितांत गोपनीय
दलालों और कुबेरों के लिए
इंद्र की कहानी याद थी लोगों को
उसका सत्ता-प्रेम प्रेरणा देता था
युग-युगांतर की सीमायें भेद।
सदी के आखिरी दिनों में
लोगों के मन में अक्षुण्ण था सम्मान
परंपरा के प्रति
इंद्र की परंपरा अक्षुण्ण थी हमारे समय में।

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