है कथानक सभी का वही | कृष्ण बिहारीलाल पांडेय

है कथानक सभी का वही | कृष्ण बिहारीलाल पांडेय

है कथानक सभी का वही दुख भरा
जिन्दगी सिर्फ शीर्षक
बदलती रही

जिन्दगी ज्यों किसी कर्ज के पत्र पर
काँपती उँगलियों के विवश दस्तखत
साँस भर भर चुकाती रहीं पीढ़ियाँ
ऋण नहीं हो सका पर तनिक भी विगत
जिन्दगी ज्यों लगी ओंठ पर बन्दिशें
चाह भीतर उमड़ती
मचलती रही

तेज आलाप के बीच में टूटती
खोखले कंठ की तान सी जिन्दगी
लग सका न जो हिलते हुए लक्ष्य पर
उस बहकते हुए बाण सी जिन्दगी
हो चुका खत्म संगीत महफिल उसी
जिन्दगी दीप सी किन्तु
जलती रही

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देखने में मधुर अर्थ जिनके लगें
जिन्दगी सेज की सलवटों की तरह
जागरण में मगर रात जिनकी कटी
जिन्दगी उन विमुख करवटों की तरह
जिन्दगी ज्यों गलत राह का हो सफर
इसलिए तीर्थ की छाँह
टलती रही

बदनियत गाँव के चौंतरे पर टिकी
रूपसी एक संन्यासिनी जिन्दगी
द्वार आए पलों को गँवा भूल से
हाथ मलती हुर्इ्र मानिनी जिन्दगी
जिन्दगी एक बदनाम चर्चा हुई
बात से बात जिसमें
निकलती रही

जिन्दगी रसभरे पनघटों सी जहाँ
प्यास के पाँव खोते रहे संतुलन
जिन्दगी भ्रान्तियों का मरुस्थल जहाँ
हर कदम पर बिछी है तपन ही तपन
जिन्दगी एक शिशु की करुण भूख सी
चन्द्रमा देख कर जो
बहलती रही

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