घुलते हुए गलते हुए | केदारनाथ सिंह

घुलते हुए गलते हुए | केदारनाथ सिंह

देखता हूँ बूँदें
टप‍-टप गिरती हुई
भैंस की पीठ पर
भैंस मगर पानी में खड़ी संतुष्ट।
उसके थन दूध से भारी।
पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण
पूरी ताकत से
थनों को खींचता हुआ अपनी ओर।
बूढ़े दालान में बैठे
हुक्का पीते – बारिश देखते हुए।
हुक्के के धुँए को
बाहर निकलते
और बारिश से हाथ मिलाते हुए।

सहसा बौछारों की ओट में
दिख जाती है एक स्त्री
उपले बटोरती हुई।
बूँदों की मार से
जल्दी-जल्दी उपलों को बचाने की कोशिश में
भीगती है वह
बचाती है उपले।
कहीं से आती है
उपलों से छनती हुई
फूल की खुशबू।
उपलों की गंध मगर फूल की गंध से
अधिक भारी
अधिक उदार

See also  सबेरे-सबेरे और अखबार | रविकांत

स्त्री को
बौछारों में
धीरे-धीरे घुलते हुए
गलते हुए देखता हूँ मैं।

केदारनाथ सिंह की रचनाये

होंठ | केदारनाथ सिंह

होंठ | केदारनाथ सिंह होंठ | केदारनाथ सिंह हर सुबहहोंठों को चाहिए कोई एक नामयानी एक खूब लाल और गाढ़ा-सा शहदजो सिर्फ मनुष्य की देह से टपकता है कई बारदेह से अलगजीना चाहते हैं होंठवे थरथराना-छटपटाना चाहते हैंदेह से अलगफिर यह जानकरकि यह संभव नहींवे पी लेते हैं अपना सारा गुस्साऔर गुनगुनाने लगते हैंअपनी जगह…

सृष्टि पर पहरा | केदारनाथ सिंह

सृष्टि पर पहरा | केदारनाथ सिंह सृष्टि पर पहरा | केदारनाथ सिंह जड़ों की डगमग खड़ाऊँ पहनेवह सामने खड़ा थासिवान का प्रहरीजैसे मुक्तिबोध का ब्रह्मराक्षस -एक सूखता हुआ लंबा झरनाठ वृक्षजिसके शीर्ष पर हिल रहेतीन-चार पत्ते कितना भव्य थाएक सूखते हुए वृक्ष की फुनगी परमहज तीन-चार पत्तों का हिलना उस विकट सुखाड़ मेंसृष्टि पर पहरा…

See also  संस्कृति | ए अरविंदाक्षन

सूर्यास्त के बाद एक अँधेरी बस्ती से गुजरते हुए |केदारनाथ सिंह

सूर्यास्त के बाद एक अँधेरी बस्ती से गुजरते हुए | केदारनाथ सिंह सूर्यास्त के बाद एक अँधेरी बस्ती से गुजरते हुए | केदारनाथ सिंह भर लोदूध की धार कीधीमी-धीमी चोटेंदिये की लौ की पहली कँपकँपीआत्मा में भर लो भर लोएक झुकी हुई बूढ़ीनिगाह के सामनेमानस की पहली चौपाई का खुलनाऔर अंतिम दोहे कासुलगना भर लो…

सन ४७ को याद करते हुए | केदारनाथ सिंह

सन ४७ को याद करते हुए | केदारनाथ सिंह सन ४७ को याद करते हुए | केदारनाथ सिंह तुम्हें नूर मियाँ की याद है केदारनाथ सिंहगेहुँए नूर मियाँठिगने नूर मियाँरामगढ़ बाजार से सुरमा बेच करसबसे आखिर मे लौटने वाले नूर मियाँक्या तुम्हें कुछ भी याद है केदारनाथ सिंहतुम्हें याद है मदरसाइमली का पेड़इमामबाड़ा तुम्हें याद…

See also  आत्महत्या | प्रेमशंकर शुक्ला

सुई और तागे के बीच में | केदारनाथ सिंह

सुई और तागे के बीच में | केदारनाथ सिंह सुई और तागे के बीच में | केदारनाथ सिंह माँ मेरे अकेलेपन के बारे में सोच रही हैपानी गिर नहीं रहापर गिर सकता है किसी भी समयमुझे बाहर जाना हैऔर माँ चुप है कि मुझे बाहर जाना है यह तय हैकि मैं बाहर जाऊँगा तो माँ…

Loading…

Something went wrong. Please refresh the page and/or try again.