फिर हमने यह देखा | अविनाश मिश्र
फिर हमने यह देखा | अविनाश मिश्र

फिर हमने यह देखा | अविनाश मिश्र

फिर हमने यह देखा | अविनाश मिश्र

रघुवीर सहाय के प्रति 

चिंताएँ कुछ अपनी कम नहीं हुईं
सब हैं अब तक वैसी की वैसी
हाँ कुछ बदलीं पर मरहम नहीं हुईं

वह कील अब भी रोज निकलती है
इस दुख को अब भी रोज समझना पड़ता है
टीस भला ये क्यों नहीं पिघलती है 

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पास का कागज कम पड़ता जाता है
‘अपमान, अकेलापन, फाका, बीमारी’
वक्त यही बस लिखना सिखलाता है?

हक के लिए हम अब तक लड़ते हैं
सारे महीने लगते हैं लंबे-लंबे
पैसे अब भी हमको कम पड़ते हैं

हम जब-जब कहते हैं अब अच्छा होगा
समय और कठिन होता जाता है
हमारा कहना आखिर कब सच्चा होगा?

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