दुखों में रास्ता बनाते हुए | कुमार अनुपम

(नीरज के लिए)

पापा बीमार थे

और माँ का परेशान होना जायज था

संकट तमाम थे और दुखों की अच्छी खासी भीड़

फिर भी कोई न कोई रास्ता

बनाते हुए गुपचुप

हम मिल लेते थे

हमारे मिलने से पहले के इंतजार में

शामिल हो जाते थे

बेघर लोग – और उनकी उदासी

और बेसब्री – जो ठंड का दिन

जैसे-तैसे बिताने के बाद

बीड़ियों और अपने रक्त की गर्मी के सहारे

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रात काटने की कोशिश

और जल्दी दिन निकलने की उम्मीद जगाए

किसी पेड़ तले बैठे होते

तो हम मिलते और साथ-साथ निकलते

दुखों में रास्ता बनाते हुए बचते बचाते जैसे

अपने कस्बे के सिनेमाघर में देखकर ब्लू फिल्म

कोई दर्शक मु्ख्य सड़क तक आता है

(हरबार नाइट-शो से नया-नया चेहरा निकलता

और हम अपने छोटे-से पूरे कस्बे

से अपने परिचय के भ्रम के आगे

लगभग शब्द जोड़ते मजबूरन और

साथ-साथ सहमत होते

कि कस्बे की आबादी बढ़ी है अचानक)

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सच, कितना कम पहचानते हैं हम

अपने ही कस्बे को खुद को भी

कितना कम महसूस कर पाते हैं हम ठंड से सुन्न

अपने हाथों को देखकर साथ-साथ महसूस करते

धुंध में खोजते हुए रास्ता

हम कस्बे के रेलवे-स्टेशन तक आते

हालाँकि हमारा

न तो कोई परिचित आनेवाला होता

न हम कहीं जा ही पाते थे

फिर भी हम आते साथ-साथ

और अँधेरे के मुहाने पर बैठ जाते

देखते रहते रेलवे-लाइन के पार जहाँ

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जरा-सी रौशनी कटी हुई फसल

की तरह लेटी होती

हमारे आसपास अँधेरा होता

और सहारा ढूँढ़ती हमारी आँखें अंततः

मँडराती रिक्शेवालों (की बीड़ियों) के इर्द-गिर्द

जो पास के गाँवों से

कमाने कस्बे में हफ्तों-हफ्तों पर आते थे

हम बीड़ियों की जलन में देखते रहते

उनके चेहरे पर जमा घर से दूर होने का दुख

हफ्तों पर

परिवार में वापस लौटने

के उत्सव जैसे पलों की कल्पना के भरोसे

अपने छोटे-से कस्बे में

हम साथ-साथ लौटते थे।