दीदारगंज की यक्षिणी | असीमा भट्ट

दीदारगंज की यक्षिणी | असीमा भट्ट

1.

‘दीदारगंज की यक्षिणी की तरह तुम्हारा वक्ष
उन्नत और सुंदर
मेरे लिए वह स्थान जहाँ सर रख कर सुस्ताने भर से
मिलती है जीवन संग्राम के लिए नई ऊर्जा
हर समस्या का समाधान…
तुम्हारे वक्ष पर जब जब सर रख कर सोया
ऐसा महसूस हुआ लेटा हो मासूम बच्चा जैसे माँ की गोद में
तुम ऐसे ही तान देती हो अपने श्वेत आँचल सी पतवार
जैसे कि मुझे बचा लोगी जीवन के हर समुद्री तूफान से…
तुम्हारे आँचल की पतवार के सहारे फिर से झेल लूँगा हर ज्वार-भाटा
अनगिन रातें जब जब थका हूँ…
हारा हूँ…
पराजित और असहाय महसूस किया है…
तुम्हारे ही वक्ष से लगकर
रोना चाहा
जार जार
हालाँकि तुमने रोने नहीं दिया कभी
पता नहीं
हर बार कैसे भाँप लेती हो
मेरी चिंता
और सोख लेती हो मेरे आँसू की एक एक बूँद
अपने होठों से
तुम्हारे वक्ष से ऐसे खेलता हूँ, जैसे खेलता है बच्चा
अपने सबसे प्यारे खिलौने से…
तुम्हारा उन्नत वक्ष
उत्थान और विजय का ऐसा समागम जैसे
फहरा रहा हो विजय ध्वज कोई पर्वतारोही हिमालय की सबसे ऊँची चोटी पर

जब भी लौटा हूँ उदास या फिर कुछ खोकर
तुमने वक्ष से लगाकर कहा
कोई बात नहीं, ‘आओ मेरे बच्चे! मैं हूँ ना’
एक पल में तुम कैसे बन जाती हो प्रेमिका से माँ
कभी कभी तो बहन सरीखी भी
एक साथ की पली बढ़ी
हमजोली… सहेली…
‘Ohh My love ! you are the most lovable lady on this earth”
सचमुच तुम्हारा नाम महान प्रेमिकाओं की सूची में
सबसे पहले लिखा जाना चाहिए
खुद को तुम्हारे पास कितना छोटा पाता हूँ, जब जब तुम्हारे पास आता हूँ
कहाँ दे पाता हूँ, बदले में तुम्हे कुछ भी
कितना कितना कुछ पाया है तुमसे
कि अब तो तुमसे जन्म लेना चाहता हूँ
तुममें, तुमसे सृष्टि की समस्त यात्रा करके निकलूँ
तभी तुम्हारा कर्ज़ चुका सकता हूँ
मेरी प्रेमिका…’

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2.

आईने में कबसे खुद को निहारती
शून्य में खड़ी हूँ
दीदारगंज की यक्षिणी सी मूर्तिवत
तुम्हारे शब्द गूँज रहे हैं, मेरे कानों में प्रेमसंगीत की तरह
कहाँ गए वो सारे शब्द ?
मेरे एक फोन ने कि –
डॉक्टर कहता है – मुझे वक्ष कैंसर है, हो सकता है, वक्ष काटना पड़े।
तुम्हारी तरफ से कोई आवाज न सुनकर लगा जैसे फोन के तार कट गए हों
स्तब्ध खड़ी हूँ
कि आज तुम मुझे अपने वक्ष से लगाकर कहोगे
– ‘कुछ नहीं होगा तुम्हें!’
चीखती हुई सी पूछती हूँ
तुम सुन रहे हो ना ?
तुम हो ना वहाँ ?
क्या मेरी आवाज पहुँच रही है तुम तक…
हाँ, ना कुछ तो बोलो…’
लंबी चुप्पी के बाद बोले
– ‘हाँ, ठीक है, ठीक है
तुम इलाज कराओ
समय मिला तो, आऊँगा…’

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3.

समय मिला तो ? ? ?
समझ गई थी सब कुछ
अब कुछ भी जो नहीं बचा था मेरे पास
तुम अब कैसे कह सकोगे
सौंदर्य की देवी…
प्रेम की देवी…

सब कुछ तभी तक था
जब तक मैं सुंदर थी
मेरे वक्ष थे
एक पल में लगा जैसे
खुदाई में मेरा विध्वंस हो गया है
खंड खंड होकर बिखर चुकी हूँ, ‘दीदारगंज की यक्षिणी’ की तरह
क्षत-विक्षत खड़ी हूँ,
अंग भंग…
खंडित प्रतिमा…
जिसकी पूजा नहीं होती

सौंदर्य की देवी अब अपना वजूद खो चुकी है…

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4.

लेकिन मैं अपना वजूद कभी नहीं खो सकती
मैं सिर्फ प्रेमिका नहीं!

सृष्टि हूँ
आदि शक्ति हूँ

और जब तक शिव भी शक्ति में समाहित नहीं होते
शिव नहीं होते …
मैं वैसे ही सदा सदा रहूँगी
सौंदर्य की प्रतिमूर्ति बनकर खड़ी,
शिव, सत्य और सुंदर की तरह…

“This Poem is dedicated to cancer surviving woman.”

दीदारगंज की यक्षिणी को सौंदर्य की देवी कहा जाता है।