काउंसलर कामरेड | कुमार अनुपम

घर की याद

सिर्फ और सिर्फ

एक भावुक पिछड़ापन है कामरेड!

व्यर्थ ही खुदुर-बुदुर

बिचारते रहे

आँतों की गाँठ आत्मा के नाखून से

नींव सींचते रहे रक्त से

जाया करते रहे उम्र की पूँजी

रात की राह पर पड़े

एक लेड की चमक

से कटते रहे शंकित बेवजह

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कि बच्चे तो

गुजरते ही रहेंगे उस राह

स्वप्नों को

निर्मम उदासीनता से

आप्लुत करना था

कामरेड!

महान चिंताओं का समय है यह

बड़े मसौदों की रणनीति

जोड़ रही है भूमंडल को

यह वक्त नहीं है ऐरी-गैरी

कविता-वविता के लिए वैध 

क्यों आमादा हो

एक अप्रासंगिक विचार करार दिए जाने को

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प्रगतिशील और समकालीन

तो नहीं ही कहलाओगे कामरेड!

आओ

आओ

राजपथ पर भाग आओ कामरेड!

वरना मिटो कलेजे में धँसाए अपना ग्राम!!

अपना संताप!!!

काउंसलर कामरेड (?)

इतना तेज और बोलते हैं अधिक

कि सुनाई नहीं पड़ता।