कोलाज | प्रेमशंकर शुक्ला | हिंदी कविता
कोलाज | प्रेमशंकर शुक्ला | हिंदी कविता

मौत आई
थोड़ा-सा चखकर चली गई

नींद आई
थोड़े सपने रखकर चली गई

खुशी आई
थोड़ी-सी दिखकर चली गई

शाम आई
अवसाद से भर रीत गई

सुबह आई
फिर कुछ लिखकर चली गई

सब आए पर पूरी तरह नहीं
जैसे अधूरा होना
सब की नियति हो

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