छिपाने के‍ लिए कोई तारा | लीलाधर जगूड़ी

छिपाने के‍ लिए कोई तारा | लीलाधर जगूड़ी

मन हुआ इस दुनिया को अपनी दुनिया कह दूँ
मन हुआ अपनी दुनिया को सुरम्‍य दुनिया कह दूँ
उसके बाद भी मन हुआ
इस दुनिया से अपनी दुनिया को कहीं छिपाकर रख दूँ

किस तारे का कितना हिस्‍सा
किराये पर लेना होगा
अपनी दुनिया को छिपाकर रखने के लिए
अपनी दुनिया तो पूरी पृथ्‍वी के बराबर है

अपनी दुनिया तो
अपने ही चारों ओर घूमती रहती है
अपनी दुनिया को तो
अपने ही साथ छिपाकर रखना होगा

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किसी तारे पर पृथ्‍वी के बराबर
कोई ऐसा खित्ता ढूँढ़ना होगा
जहाँ पहाड़ हों बेशक
पर घाटियों में नदी जरूर हो
जहाँ समुद्र हों बेशक पर किनारे जरूर हों

किसी तारे पर अपनी दुनिया को छिपाकर रखने के लिए
समुद्र से थोड़ा दूर
नदी के थोड़ा पास
जहाँ से शिखर ओझल न होते हों
जहाँ घास और झाड़-झंखाड़ में
अपना आधा शरीर छिपाये पेड़ हों
जहाँ घर भी दूर से जंगल दिखता हो

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पेड़ हों पेड़ ऐसे
जिनके छत्र से आकाश
तब तक न दिखता हो जब तक हवा न चले
चले तो दिख जाये शैतान बच्‍चे की तरह
पैर सिकोड़कर हरी मेज के नीचे छिपा हुआ
नीला टोपा मुँह पर रखे
सोने का नाटक करता हुआ

अगर मैं अपनी दुनिया का एक पेड़ होऊँ वहाँ
तो अपने फल पर चिड़िया बिठा लूँ
किसी तोर पर पेड़ की छत्र छाया में
अगर मैं अपनी दुनिया का एक पत्‍थर होऊँ वहाँ
तो अपने पर काई उगा लूँ

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वहाँ मैं अपनी दुनिया का
सुरम्‍य सन्‍नाटा होऊँ
जिसमें हजारों मोमाखियों की गुँगाई हो

छिपाकर रखी हुई दुनिया में शहद का एक छत्ता बने
दुनिया भर के एकांत पर टपकता हुआ
महकता हुआ
किसी तारे के एकांत में
छिपाया हुआ अपनी दुनिया का एकांत

जब भी मैं दुनिया को
उसकी दुनिया का शहद चखाना चाहूँगा
किसी तारे पर जाकर लाना होगा मुझे
अपनी दुनिया का शहद।