रात के तारों को देखा है 
टिमटिमाते 
घर बनाते 
जहाज बन जाते 
या फिर घोड़े जैसा बनते हुए 
कम से कम 
इस समाप्त हो रही पीढ़ी ने 
देखा ही होगा… 
उमस से कथरी में लिपटे हुए 
शीतल भोर के इंतजार में। 
एक और पीढ़ी बन रही है 
जो बंद शहर की छतों पर चिपके हुए 
तारों को देखकर 
आँख मूँद लेती है 
अगली सुबह तक। 
आज एक बचपन है 
जो कैद कर लिया गया है 
तारों के आने से पहले ही 
तारे जो टिमटिमाते थे 
लोरी सुनाते थे 
सुलाते थे… 
अब बम बन गए हैं 
जो गिर रहे हैं बचपन पर 
जो माहिर हैं 
आकृतियाँ ध्वस्त करने में 
अब ये पीढ़ी 
आकृतियाँ नहीं बना सकती 
जिसमें हाथी, घोड़े, घर व जहाज हो 
एक पूरा का पूरा समाज हो।

See also  अश्रु मेरे माँगने जब | महादेवी वर्मा