भूख जहाँ दरवाजा खोले | जगदीश श्रीवास्तव

भूख जहाँ दरवाजा खोले | जगदीश श्रीवास्तव

भूख जहाँ दरवाजा खोले
रोशनदान रहे अनबोले
परदों की कट गई भुजाएँ
अंधी दीवारें चिल्लाएँ
सन्नाटा क्यूँ आँख दिखाकर
मुझ पर हँसता है

आँखों में चुभते हैं दाने
पत्थर को रखकर सिरहाने
आदम सोता है
जहर हो गई जहाँ दवाई
खाल खींचते रहे कसाई
जिसे देखिए वही राह में काँटे बोता है
आँखों में चिनगारी डोले
रामू भीगी पलकें खोले
सूरज खीस निपोरे मुझ पर
ताने कसता है

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चुप है मौसम आँखें मींचे
सूख रहे हैं बाग बगीचे
बोलो! किस पर दोष लगाएँ
करवट लेती रहीं दलीलें
दस्तावेज बिना तकसीलें
गुनहगार हमको समझाएँ
कौन यहाँ पर पोलें खोले
जहाँ तराजू ही कम तोले
बाज शिकारी-सा हमको
पंजों में कसता है
सन्नाटा क्यूँ आँख दिखाकर
मुझ पर हँसता है

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