भेड़ियों का कायाकल्प | जसबीर चावला

भेड़ियों का कायाकल्प | जसबीर चावला

पुरानी कहानी में
भेड़िये ने मेमने से कहा
क्यों गंदा कर रहा है वह उसका पानी
वह जानता था
मेमना नहीं कर सकता
ढलान पर है
ओर भेड़िया ऊँचाई पर
भेड़िया तब भी जानता था
वह पिछले वर्ष गाली नहीं दे सकता
मेमना जन्मा ही नहीं था
भेड़िया तर्क / कुतर्क न भी करता
गाली मेमने के बाप या बाप के बाप ने दी
खा जाता यों ही उसे
क्या गलत होता
आहार श्रृंखला में
उसका जायज भोजन था मेमना
नैतिक / प्राकृतिक रूप से
धार्मिक / विधिक / इतिहासिक
हर प्रकार से
भेड़िये की पहचान उजागर थी
निखालिस भेड़िया
बिना बात / तर्क भी खा सकता था
अब हिंस्र भेड़िये
बदल गये / छद्म हैं
ओढ़ लिये मुखोटे / परिवेश
मासूम मेमनों / भेड़ों के भेष
अफवाहों के कारखाने
ये चलाते हैं
समाज / मोहल्ले
गाँव / गली में
बँटवारे कराते हैं
टोपी / तिलक / पगड़ी में
पहचान चिह्नों में
खैरख्वाह बनते / प्रजा को लड़ाते
नरसंहार / हिंसा
बदल गई है भूमिका
पहले हिंसा
फिर जाँच आयोग
और सारे लकड़बग्घे भी
जब / जहाँ / जितना चाहें
हँस सकते हैं
बदली भाव भंगिमा पर
अपनी सफल रणनीति पर

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