भाषा की ध्वस्त पारिस्थितिकी में | कुँवर नारायण

भाषा की ध्वस्त पारिस्थितिकी में | कुँवर नारायण

प्लास्टिक के पेड़
नाइलॉन के फूल
रबर की चिड़ियाँ

टेप पर भूले बिसरे
लोकगीतों की
उदास लड़ियाँ…

एक पेड़ जब सूखता
सब से पहले सूखते
उसके सब से कोमल हिस्से –
उसके फूल
उसकी पत्तियाँ।

एक भाषा जब सूखती
शब्द खोने लगते अपना कवित्व
भावों की ताजगी
विचारों की सत्यता –
बढ़ने लगते लोगों के बीच
अपरिचय के उजाड़ और खाइयाँ…

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सोच में हूँ कि सोच के प्रकरण में
किस तरह कुछ कहा जाय
कि सब का ध्यान उनकी ओर हो
जिनका ध्यान सब की ओर है –

कि भाषा की ध्वस्त पारिस्थितिकी में
आग यदि लगी तो पहले वहाँ लगेगी
जहाँ ठूँठ हो चुकी होंगी
अपनी जमीन से रस खींच सकनेवाली शक्तियाँ।

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