उमेश चौहान
उमेश चौहान

बेटी से बहू बनने की प्रक्रिया में
कैसे-कैसे मानसिक झंझावातों से
गुजरती है लड़की।

अपनों से एकाएक कटकर अलग होती,
कटने की उस तीखी पीड़ा को
दांपत्य-बंधन के अनुष्ठानों में संलग्न हो
शिव के गरल-पान से भी ज्यादा सहजता से
आत्मसात करने का प्रयत्न करती,
लड़की वैसे ही विदा होती है
माँ-बाप की ड्योढ़ी से
जैसे आकाश का कोई उन्मुक्त पंछी
उड़कर समाने जा रहा हो किसी अपरिचित पिंजड़े में

READ  कवि कुल परंपरा | बद्रीनारायण

अपने नवेले जीवन-साथी के पंख से पंख मिलाता
किसी नूतन स्वप्नलोक की तलाश में।
अपने बचपन की समस्त स्वाभाविकता
अपने किशोरपन की सारी चंचलता

अपने परिवेश में संचित समूची भावुकता
सबको एकाएक भुलाकर
अपने नए परिवार में एकाकार होती लड़की
हर दम बाहर से हँसती और अंदर से रोती है।
लड़की का पहनावा, बोल-चाल, हाव-भाव
सब कुछ नित्य नए परिजनों के स्कैनर पर होता है
माँ-बाप के घर से मिले संस्कार-कुसंस्कार
कपड़े-लत्ते, गहने, सामान
सब पर उनका अपना-अपना दृष्टिकोण होता है
जिनका लड़की के कानों तक पहुँचाया जाना
अनिवार्यता होती है, और
उन पार्श्व-वक्तव्यों की अंतर्ध्वनि तक को
पचा जाना लड़की का कर्तव्य।
अपने नए परिवार की परंपराओं के साथ ताल-मेल बिठाती,
अपने नए जीवन-सहचर के साथ
दांपत्य की अभिनव यात्रा पर निकल पड़ी लड़की
हमेशा सशंकित रहती है,
चिंतित होती है,
फिर भी वह निरंतर आशावान बनी रहती है
अपने भविष्य के प्रति।

READ  कोई दिन था जबकि हमको भी बहुत कुछ याद था | त्रिलोचन

बेटी से बहू बनने की प्रक्रिया से गुजरती लड़की
अपने प्रियतम की आँखों में आँखें डालकर
परिवर्तन के अथाह सागर को पार कर जाती है,
किंतु कभी-कभी दुर्भाग्यशाली भी होती है
ऐसी ही एक बेटी
जिसे उन आँखों में नहीं मिल पाती
अपने भविष्य के उजाले की कोई भी किरण।

READ  पाँच महीने के अपने बच्चे से बातचीत के बहाने | पंकज चतुर्वेदी

Leave a comment

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *