बेटी के लिए कविताएँ एक : होली | अभिज्ञात

बेटी के लिए कविताएँ एक : होली | अभिज्ञात

कुत्ते को रंगा
रंगा मुर्गियों को
चूजों के कोमल परों पर लगाया अबीर आहिस्ते से
नीबू के पत्तों पर बेअसर रहा जलरंग
नारियल के पत्ते पर भी फेंक कर देखा
केले के पत्ते भी नहीं बचे

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थोड़ी सी इधर वाली घास पर
जहाँ नंगे पाँव टहलने को मना करती है अक्सर तेरी माँ
माँ की बनाई पूरी का रंग भी थोड़ा कर लाल
थोड़ा हरा
उसकी झिड़कियों के बावजूद
उन नंगधड़ंग बच्चों पर भी फेंक आ
दौड़कर पिचकारी के रंग

बार-बार हर रंग की आजमाइश होती रही
इस बाप पर

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मैं बचूँ भी तो कैसे
कुदरत का हर रंग
तेरा है
तेरा हर रंग
मेरा है
मैं तेरे खेल का गवाह हूँ
मैं तेरे हर खेल का मददगार हूँ
क्योंकि तू मेरा खेल है
मैं तेरा चेहरा लगाकर छुप गया हूँ तेरे अंदर
तू मेरे अंदर है दूसरी काया होकर भी।

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