बेर का पेड़ | आरसी चौहान

बेर का पेड़ | आरसी चौहान

मेरा बचपन 
खरगोश के बाल की तरह 
नहीं रहा मुलायम 
न ही कछुवे की पीठ की तरह 
कठोर ही 
हाँ मेरा बचपन 
जरूर गुजरा है 
मुर्दहिया, भीटा और 
मोती बाबा की बारी में 
बीनते हुए महुआ, आम 
और जामुन 
दादी बताती थीं 
इन बागीचों में 
ठाढ़ दोपहरिया में 
घूमते हैं भूत-प्रेत 
भेष बदल-बदल 
और पकड़ने पर 
छोड़ते नहीं महिनों 
कथा किंवदंतियों से गुजरते 
आखिर पहुँच ही जाते हम 
खेत-खलिहान लाँघते बागीचे 
दादी की बातों को करते अनसुना 
आज स्मृतियों के कैनवास पर 
अचानक उभर आया है 
एक बेर का पेड़ 
जिसके नीचे गुजरा है 
मेरे बचपन का कुछ अंश 
स्कूल की छुट्टी के बाद 
पेड के नीचे 
टकटकी लगाए नेपते रहते 
किसी बेर के गिरने की या 
चलाते अंधाधुंध ढेला, लबदा 
कहीं का ढेला 
कहीं का बेर 
फिर लूटने का उपक्रम 
यहाँ बेर मारने वाला नहीं 
बल्कि लूटने वाला होता विजयी 
कई बार तो होश ही नहीं रहता 
कि सिर पर 
कितने बेर गिरे 
या किधर से आ लगे 
ढेला या लबदा 
आज कविता में ही 
बता रहा हूँ कि मुझे एक बार 
लगा था ढेला सिर पर टन्न-सा 
और उग आया था गुमड़ 
या बन गया था ढेला-सा दूसरा 
बेर के खट्टे-मीठे फल के आगे 
सब फीका रहा भाई 
यह बात आज तक 
माँ-बाप को नहीं बताई 
हाँ, वे इस कविता को 
पढ़ने के बाद ही 
जान पाएँगे कि बचपन में 
लगा था बेर के चक्कर में 
मुझे एक ढेला 
खट्टा, चटपटा और 
पता नहीं कैसा-कैसा 
और अब यह कि 
हमारे बच्चों को तो 
ढेला लगने पर भी 
नहीं मिलता बेर 
जबसे फैला लिया है बाजार 
बहेलिया वाली कबूतरी जाल 
जमीन से आसमान तक एकछत्र।

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