बसंत | केदारनाथ सिंह
बसंत | केदारनाथ सिंह

बसंत | केदारनाथ सिंह

बसंत | केदारनाथ सिंह

और बसंत फिर आ रहा है
शाकुंतल का एक पन्ना
मेरी अलमारी से निकलकर
हवा में फरफरा रहा है
फरफरा रहा है कि मैं उठूँ
और आस-पास फैली हुई चीजों के कानों में
कह दूँ ‘ना’
एक दृढ़
और छोटी-सी ‘ना’
जो सारी आवाजों के विरुद्ध
मेरी छाती में सुरक्षित है

मैं उठता हूँ
दरवाजे तक जाता हूँ
शहर को देखता हूँ
हिलाता हूँ हाथ
और जोर से चिल्लाता हूँ –
ना…ना…ना

मैं हैरान हूँ
मैंने कितने बरस गँवा दिए
पटरी से चलते हुए
और दुनिया से कहते हुए
हाँ हाँ हाँ…

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होंठ | केदारनाथ सिंह

होंठ | केदारनाथ सिंह होंठ | केदारनाथ सिंह हर सुबहहोंठों को चाहिए कोई एक नामयानी एक खूब लाल और गाढ़ा-सा शहदजो सिर्फ मनुष्य की देह से टपकता है कई बारदेह से अलगजीना चाहते हैं होंठवे थरथराना-छटपटाना चाहते हैंदेह से अलगफिर यह जानकरकि यह संभव नहींवे पी लेते हैं अपना सारा गुस्साऔर गुनगुनाने लगते हैंअपनी जगह…

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