बंदिशें-आलाप | माहेश्वर तिवारी

बंदिशें-आलाप | माहेश्वर तिवारी

पक गए से
लग रहे हैं
इस उमर में,
भैरवी की बंदिशें, आलाप।

शब्द की यात्रा
हुई है स्वरों में
तब्दील
जिस तरह से
अतल की गहराइयों में
जल रही हो
सूर्य की कंदील
पड़ रही है
साँस के बजते मृदंगों पर
ता धिनक, धिन,
ता धिनक धिन थाप।

यह स्वरों की
यात्रा लगती
आहटें जैसे
उजालों की
छेद रहे कोहरे,
धुंध थके हर तरफ से
भीड़ छँटती
जा रही
जैसे सवालों की
कंठ से जैसे
निकलते बोल
उत्सव के
सरगमों से, राग बोधों से
हुआ संलाप।

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