बैठक का कमरा | हरीशचंद्र पांडे

बैठक का कमरा | हरीशचंद्र पांडे

चली आ रही हैं गर्म-गर्म चाय भीतर से
लजीज खाना चला आ रहा है भाप उठाता
धुल के चली आ रही हैं चादरें परदे
पेंटिंग पूरी होकर चली आ रही है
सँवर के आ रही है लड़की

जा रहे हैं भीतर जूठे प्याले और बर्तन
गंदी चादरें जा रही हैं परदे जा रहे हैं
मुँह लटकाए लड़की जा रही है
पढ़ लिया गया अखबार भी

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खिला हुआ है कमल-सा बाहर का कमरा

अपने भीतर के कमरों की कीमत पर ही खिलता है कोई
बैठक का कमरा
साफ-सुथरा संभ्रांत

जिसे रोना है भीतर जा के रोए
जिसे हँसने की तमीज नहीं वो भी जाए भीतर
जो आए बाहर आँसू पोंछ के आए
हँसी दबा के
अदब से

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जिसे छींकना है वहीं जाए भीतर
खाँसी वहीं जुकाम वहीं
हँसी-ठट्ठा मारपीट वहीं

वहीं जलेगा भात
बूढ़ी चारपाई के पायों को पकड़ कर वहीं रोएगा पूरा घर
वहीं से आएगी गगनभेदी किलकारी और सठोरों की खुशबू

अभी-अभी ये आया गेहूँ का बोरा भी सीधे जाएगा भीतर
स्कूल से लौटा ये लड़का भी भीतर ही जा कर आसमान
सिर पर उठाएगा

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निष्प्राण मुस्कुराहट लिए अपनी जगह बैठा रहेगा
बाहर का कमरा

जो भी जाएगा घर से बाहर कभी, कहीं
भीतर का कमरा साथ-साथ जाएगा