औरत होने का अहसास | मंजूषा मन

औरत होने का अहसास | मंजूषा मन

मुझमें भी सपने थे
मैं भी चाहती थी उड़ना।
बचपन से ही
अपनी बाजुओं में
नजर आते थे मुझे
अनदेखे पंख।
मुझमे भी साहस था
मुझे यकीं था
बदल दूँगी दुनिया
मैं भी एक दिन
सोचा था मैंने भी
भरूँगी मुट्ठी में तारे
मैं भी दौड़ूँगी
बिना किसी के सहारे।
पर जाने कैसे,
जब से हुआ मेरे मन में
एक औरत का जन्म
जबसे मेरे अंदर
फलने-फूलने लगी
एक औरत।
मेरे सपने खो गए
गुम हो गई मेरी ताकत
मेरी हिम्मत मेरा साहस
धीरे-धीरे
नहीं बचा कुछ भी मेरे अंदर
सिवाय
औरत होने के अहसास के।
पर आज
चाहती हूँ भूल जाना
कि मैं…
एक औरत हूँ
अब मैं इनसान की तरह जियूँगी

See also  कवि की वासना | हरिवंशराय बच्चन

अपने उधड़े अतीत को
अपनी ताकत की सुई में
हिम्मत का धागा पिरो
खुद सियूँगी
मुझे यकीं है
अब मैं भी उड़ सकूँगी
समेटूँगी
अपनी बिखरी ताकत।