अंतराल | मंगलेश डबराल
अंतराल | मंगलेश डबराल

अंतराल | मंगलेश डबराल

अंतराल | मंगलेश डबराल

हरा पहाड़ रात में
खिसककर मेरे सिरहाने खड़ा हो जाता है
शिखरों से टकराती हुई तुम्हारी आवाज
सीलन-भरी घाटी में गिरती है
और बीतते दॄश्यों की धुंध से
छनकर आते रहते हैं तुम्हारे देह-वर्ष
पत्थरों पर झुकी हुई घास
इच्छाओं की तरह अजस्र झरने
एक निर्गंध मृत्यु और वह सब
जिससे तुम्हारा शरीर रचा गया है
लौटता है रक्त में
फिर से चीखने के लिए।

READ  मजार | भारती सिंह

Leave a comment

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *