उसके अनपढ़ होने में
कोई कसूर नहीं था उसका
यह उन लोगों के गुनाहों का सबूत भर था
जो पढ़े-लिखे होकर भी
इस बात के गवाह बने हैं कि

वह अनपढ़ है
भले ही वे इसके पक्षधर हों या न हों।
वह अनपढ़ इसलिए थी
क्योंकि उसके माँ-बाप अनपढ़ थे
क्योंकि उसके गाँव में कोई स्कूल नहीं था
या फिर इसलिए भी कि
कोई पढ़ाने वाला न होने के कारण
बंद पड़ा था

उसके पड़ोसी गाँव का स्कूल भी
या शायद इसलिए कि
माँ-बाप के पास नहीं थी
उसके लिए बचपन में
कॉपी-किताबें खरीदने की ताकत भी।
उसके लकड़ियाँ बीनकर लाने पर ही
घर का चूल्हा जलता था
बीमार माँ के पास बैठकर
उसके चकिया पीसने पर ही
घर में रोटी का जुगाड़ होता था
घर के झाड़ू-बरतन से लेकर

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गाँव के दूसरे छोर वाले कुएँ से
पानी लाने तक का सारा जिम्मा भी
उसी के सिर था
उसकी दिनचर्या में
पढ़ना भी शामिल हो
इसकी जरूरत तक
कभी महसूस नहीं की थी उसने
न ही किसी और ने कभी में थी इसका
कोई अहसास भी दिलाया था उसको
औरों की तो मौज ही इसी में थी कि
वह अनपढ़ ही बनी रहे सदा
उनकी सेवा-टहल के लिए सदैव सुलभ।
गाँव से शहर तो चली आई है वह
पति के पीछे-पीछे
पर अनपढ़ बने रहना
परिवार का पेट पालने की खातिर
सस्ते में चाकरी करना
नियति का खेल ही मान रखा है उसने
उसका पति भी नहीं चाहता कि
वह पढ़-लिखकर होशियार बन जाय
और करने लगे प्रश्न पर प्रश्न
उसकी मनमानी भरी बातों पर नित्य।

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लेकिन अचानक ही अब
कचोटने लगा है उसको
अपना अनपढ़ होना
जब से लगाने पड़ रहे हैं उसे
थाने व कचेहरी के चक्कर
क्योंकि एक झूठे मामले में
दिल्ली की बेलगाम पुलिस ने
जेल भेज दिया है उसके पति को
कई गैर-जमानती आरोप लगाकर।

पति के केस के वे कागजात
जिन्हें पढ़वाने के लिए
नित्य तमाम तरह की जलालत झेलती है वह
और लगाती रहती है मौन
वकीलों और पुलिस वालों के चक्कर
उन्हें खुद न पढ़ पाने की पीड़ा
पसरी रहती है हमेशा उसके चेहरे पर
जैसी स्थायी रूप से समाई रहती है मलिनता
शहर की अनधिकृत झोपड़पट्टियों में।

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बेबस निगाहों से कागजों को पलटती
जब भी मिलती है वह पति से
तिहाड़ जेल की सलाखों के बाहर से
उसे यही लगता है कि
यदि वह स्वयं पढ़ पाती उन कागजों को
तो शायद शीघ्र ही
वापस ले जा सकती थी अपने पति को
उन सलाखों के पीछे से निकालकर
स्वयं अपने ही बलबूते।

निराशा के भँवर में डूबती-उतराती
अंततोगत्वा पढ़ना सीख रही है वह आजकल
काले अक्षरों के बीच उजास तलाशती
अपनी निःस्वप्न आँखों में
अनपढ़ होने का सारा दर्द समेटे।