अकेली औरतें | प्रतिभा कटियारी

अकेली औरतें | प्रतिभा कटियारी

जिम्मेदारियों से घिरी दौड़ती भागती
खुद गिरती, खुद उठती
खुद रोती और खुद अपने आँसू पोछकर मुस्कुराती
अकेली औरतें
इतनी भी अकेली नहीं होती
उनके आस-पास होती है
किसी सहकर्मी की कसी गई कोई फब्ती
मोहल्ले में होने वाली चर्चाओं में उनका जिक्र
बेवजह पूछे जाने वाले बेहूदा सवाल
और हर वक्त मदद के बहाने
नजदीकी तलाशती निगाहें
अकेली औरत
इतनी भी अकेली नहीं होतीं
अकेली औरतों के गले में मंगलसूत्र की जगह
लोगों को लटका नजर आता है ‘अवेलेबल’ का बोर्ड
विचारों की आधुनिकता के आड़ में
अश्लील बातों का जाल बिछ रहा होता है उनके आस-पास
उनका हँसना और खुश रहना चुनौती होता है समाज के लिए
सचमुच अकेली औरत
इतनी भी अकेली नहीं होती
वो लाइन में लगकर खा रही होती है धक्के
पंचर स्कूटर को घसीट रही होती है खड़ी दोपहर में
मदद को यूँ तो बिछा होता है एक साजिश का संसार
लेकिन अकेली औरत अपनी खुद्दारी को करती है सलाम
हर रोज सीखती है एक नया सबक
और होती है थोड़ी सी और मजबूत
अकेली औरत
इतनी भी अकेली नहीं होती
अकेली औरते पिच्च से थूक देती हैं जमाने भर का कसैलापन
ताकि भीतर की मिठास बची रहे
वो बेफिक्र गुनगुनाती हैं
बिसूरती नहीं
जीती हैं अपने अकेलेपन को
चाहे अकेलापन उनका चुनाव हो या न हो
वो खड़ी होती हैं जिंदगी के सामने पूरी ताकत से
अकेलेपन का उत्सव मनाती अकेली औरतें
इतनी भी अकेली नहीं होती
घरेलू औरतें भय खाती हैं अकेली औरतों से
वो अपने पतियों और प्रेमियों को
दूर रखना चाहती हैं उनसे
उन्हें ‘विवाहिता’ होने की गौरव गाथाएँ सुनाते हुए इतराती हैं
लेकिन अनायास उभर आई अपनी अकेलेपन की
पीड़ा छुपाने में नाकामयाब भी होती हैं
अकेली औरते समझती हैं उनकी पीड़ा और उनका अकेलापन
अकेली औरतें खुद
इतनी भी अकेली नहीं होती
वो देखती हैं उन औरतों को जो
रह रही हैं किसी के साथ
साथ जो सिर्फ होने भर का है
सोने भर का है
जिसके ख्वाब हर रोज दम तोड़ते हैं किसी के खर्राटों के नीचे
अकेली औरतें सुन पाती हैं उस अकेलेपन की कराह
जो बँधी है किसी के साथ अटकी हुई औरत के आँचल में
वो लंबा कश लेकर धुआँ छोड़ती है
पितृसत्ता की लंबी उम्र की कमनाओं
में डूबी स्त्रियों के मासूम अहंकार पर
अकेली औरतें देख पाती है उस अकेलेपन को जो उगता है
पति की बाँहों में सिमटते हुए
शादी की सालगिरह के जश्न में
बजबजाती नकली मुस्कानों के साथ
एकदम सटकर फोटो खिंचवाते हुए
मेहँदी हसन की आवाज में अपनी शामों को घोलते हुए
वो देखती है दुनिया के मेले में गुम तमाम अकेली औरतों को
अकेली औरतें खुद
इतनी भी अकेली नहीं होतीं…

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