अकाल में सारस | केदारनाथ सिंह
अकाल में सारस | केदारनाथ सिंह

अकाल में सारस | केदारनाथ सिंह

अकाल में सारस | केदारनाथ सिंह

तीन बजे दिन में
आ गए वे
जब वे आए
किसी ने सोचा तक नहीं था
कि ऐसे भी आ सकते हैं सारस

एक के बाद एक
वे झुंड के झुंड
धीरे-धीरे आए
धीरे-धीरे वे छा गए
सारे आसमान में
धीरे-धीरे उनके क्रेंकार से भर गया
सारा का सारा शहर

वे देर तक करते रहे
शहर की परिक्रमा
देर तक छतों और बारजों पर
उनके डैनों से झरती रही
धान की सूखी
पत्तियों की गंध

अचानक
एक बुढ़िया ने उन्हें देखा
जरूर-जरूर
वे पानी की तलाश में आए हैं
उसने सोचा

वह रसोई में गई
और आँगन के बीचोबीच
लाकर रख दिया
एक जल-भरा कटोरा

लेकिन सारस
उसी तरह करते रहे
शहर की परिक्रमा
न तो उन्होंने बुढ़िया को देखा
न जल भर कटोरे को

READ  जूते | अशोक वाजपेयी

सारसों को तो पता तक नहीं था
कि नीचे रहते हैं लोग
जो उन्हें कहते हैं सारस

पानी को खोजते
दूर-देसावर से आए थे वे

सो, उन्होंने गर्दन उठाई
एक बार पीछे की ओर देखा
न जाने क्या था उस निगाह में
दया कि घृणा
पर एक बार जाते-जाते
उन्होंने शहर की ओर मुड़कर
देखा जरूर

फिर हवा में
अपने डैने पीटते हुए
दूरियों में धीरे-धीरे
खो गए सारस

केदारनाथ सिंह की रचनाये

होंठ | केदारनाथ सिंह

होंठ | केदारनाथ सिंह होंठ | केदारनाथ सिंह हर सुबहहोंठों को चाहिए कोई एक नामयानी एक खूब लाल और गाढ़ा-सा शहदजो सिर्फ मनुष्य की देह से टपकता है कई बारदेह से अलगजीना चाहते हैं होंठवे थरथराना-छटपटाना चाहते हैंदेह से अलगफिर यह जानकरकि यह संभव नहींवे पी लेते हैं अपना सारा गुस्साऔर गुनगुनाने लगते हैंअपनी जगह…

READ  स्वतंत्रताएँ सभी | राजकुमार कुंभज

सृष्टि पर पहरा | केदारनाथ सिंह

सृष्टि पर पहरा | केदारनाथ सिंह सृष्टि पर पहरा | केदारनाथ सिंह जड़ों की डगमग खड़ाऊँ पहनेवह सामने खड़ा थासिवान का प्रहरीजैसे मुक्तिबोध का ब्रह्मराक्षस -एक सूखता हुआ लंबा झरनाठ वृक्षजिसके शीर्ष पर हिल रहेतीन-चार पत्ते कितना भव्य थाएक सूखते हुए वृक्ष की फुनगी परमहज तीन-चार पत्तों का हिलना उस विकट सुखाड़ मेंसृष्टि पर पहरा…

सूर्यास्त के बाद एक अँधेरी बस्ती से गुजरते हुए |केदारनाथ सिंह

सूर्यास्त के बाद एक अँधेरी बस्ती से गुजरते हुए | केदारनाथ सिंह सूर्यास्त के बाद एक अँधेरी बस्ती से गुजरते हुए | केदारनाथ सिंह भर लोदूध की धार कीधीमी-धीमी चोटेंदिये की लौ की पहली कँपकँपीआत्मा में भर लो भर लोएक झुकी हुई बूढ़ीनिगाह के सामनेमानस की पहली चौपाई का खुलनाऔर अंतिम दोहे कासुलगना भर लो…

सन ४७ को याद करते हुए | केदारनाथ सिंह

सन ४७ को याद करते हुए | केदारनाथ सिंह सन ४७ को याद करते हुए | केदारनाथ सिंह तुम्हें नूर मियाँ की याद है केदारनाथ सिंहगेहुँए नूर मियाँठिगने नूर मियाँरामगढ़ बाजार से सुरमा बेच करसबसे आखिर मे लौटने वाले नूर मियाँक्या तुम्हें कुछ भी याद है केदारनाथ सिंहतुम्हें याद है मदरसाइमली का पेड़इमामबाड़ा तुम्हें याद…

READ  आलाप में गिरह

सुई और तागे के बीच में | केदारनाथ सिंह

सुई और तागे के बीच में | केदारनाथ सिंह सुई और तागे के बीच में | केदारनाथ सिंह माँ मेरे अकेलेपन के बारे में सोच रही हैपानी गिर नहीं रहापर गिर सकता है किसी भी समयमुझे बाहर जाना हैऔर माँ चुप है कि मुझे बाहर जाना है यह तय हैकि मैं बाहर जाऊँगा तो माँ…

Loading…

Something went wrong. Please refresh the page and/or try again.

Leave a comment

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *