अजनबी | प्रांजल धर
अजनबी | प्रांजल धर
तो क्या समझूँ, क्या मानूँक्या न समझूँ, क्या न मानूँक्या यह
कि वह ‘जंगली’ आदमीजो रात में ओढ़ा गया थामुझे चादर,
मेरे पाँव तक;वह क्रेता था
मेरी भावनाओं कासहानुभूतियों काया विक्रेता था
अपने इरादों का, चालों काघनचक्कर जालों काया कि कोई दुश्मन था
पिछले पुराने सालों का?
किसी अजनबी की सिर्फ एकछोटी-सी सहायताएक ही साथ
कितने बड़े-बड़े सवाल
खड़े कर जाती है
जिन्हें सोचकर अबपूरी की पूरी रात
नींद नहीं आती है।