अब भी | माहेश्वर तिवारी

अब भी | माहेश्वर तिवारी

अब भी
मुझमें रोज एक
नालंदा जलता है

अक्सर अब अब भी
मुझ तक आते हैं
बस केवल दो ही
आदमकद चीखें
या दल के दल
अश्वारोही
घबराया-घबराया
कोई
मुझमें चलता है

जले-अधजले
भोजपत्र
उड़ रहे हवाओं में
गंध उन्हीं की
है फैली
हर ओर दिशाओं में
बूट पहन
कोई सपनों को
रोज कुचलता है

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