आकांक्षा | आस्तिक वाजपेयी

आकांक्षा | आस्तिक वाजपेयी

शायद सितारे आज टूट जाएँगे
उसकी अस्त-व्यस्तता के बीच
कहीं कुछ ऐसा, मवाद ही तो
पर हो जरूर जो प्रतिभाहीन मनुष्य के साथ
भी रह जाएगा
समय के अंत तक।

कुछ ऐसा जो चमकेगा
किसी पहाड़ के ऊपर
एक अदृश्य बिजली की तरह।

हर स्वप्न हर बार एक चमक
एक बात एक स्वप्न हर बार।

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एक विषम अथाह विस्तार
यह मनुष्य, यह मृत्यु, हाहाकार।

जहाँ हम जाएँगे वहीं से कभी आ रहे थे।

करुण कर्म, ध्वस्त कपाल
प्रज्वलित स्वप्न, स्मृतियाँ अपार।

कुर्सी से उठकर एक तरफ जाते हुए,
जाकर आते हुए
हमसे रात छूट गई।

मैं यह करूँ, मैं वह करूँ
मैं क्या करूँ ?

उसे रोना ही था जिसे
हँसना ही था।

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कुछ तो बचना ही था,
कुछ तो बच ही गया।