आग | नरेश अग्रवाल

आग | नरेश अग्रवाल

चीजों के राख में बदल जाने के बाद 
कुछ भी मालूम नहीं होता 
इसका पिछला स्वरूप क्या था 
और आग जलती है बिना भेद-भाव के 
प्राप्त करती है अपनी खुराक नरम चीजों से 
और पकड़ने को बढ़ती है सख्ती की ओर 
लेकिन कितनी आसानी से बांध लेते हैं इसे 
छोटे से मिट्टी के दीये भी, अपने आकार में 
जबकि सूरज की आग की हमें परवाह नहीं 
ना ही डर है चाँद-सितारों से 
क्योंकि ये दूरस्थ मित्र हैं हमारे 
रोटी की तरह हमारा पोषण करते हुए 
और वह आग बेहद डरावनी हो सकती है कल 
जो अभी बंद है किसी माचिस की डिबिया में 
और जिसे शैतानी हाथ ढूँढ़ रहे हैं घुप्प अँधेरे में।

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