आदि मानव | अनिल कुमार पुरोहित
आदि मानव | अनिल कुमार पुरोहित
धरोहर है एक – परंपरा
कैसी छोड़ दूँ इसे ?
बर्बरता, हिंस्त्रता, पशुता
और इसमें थोड़ी सी – मानवता ।
यही सौंप जाना,
आने वाले – कल को।
आदि मानव मैं –
आदिम – सदियों से
सदियों तक।
अवसर ही ना मिला
सभ्य होने का ।
चढा मुखौटे सँवारता रहा
बस अपने आपको।
आदिमता जो दिख रही
मुझे अतीत में
वही देखेगा भविष्य
मुझमें।
कहाँ माँज पाया – परंपरा अपनी
बहती गयी – धारा वक्त की
धोता रहा मुखौटे,
बैठ किनारे –
सदियों से – सदियों तक।